बिसाऊ के धामू वंश का इतिवृत्त

अतीत की एक झलक

नुष्य के बाह्य और आंतरिक जीवन की समरस प्रकृति ही उसके सांस्कृतिक अस्तित्व को श्रेष्ठ बनाती है। यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपने जातीय अतीत के गरिमामय स्रोतों से जुड़कर गर्व का अनुभव करता है। अपनी जातीय पहचान के माध्यम से एक विशिष्ट पहचान स्थापित कर वह स्वयं को अन्य सामाजिक वर्गों की तुलना में अलग और विशिष्ट रूप में प्रस्तुत करने में गर्व महसूस करता है। इसी कारण वह अपने भीतर अतीत की जीवंत छवियों को संजोकर रखता है, उन्हें वर्तमान के संदर्भ में परखता है, और उन अनुभवों के आधार पर उज्जवल भविष्य के निर्माण की दिशा में अग्रसर होता है। स्वाभाविक है कि वह अपने जातीय आदर्शों, विश्वासों और परंपराओं को कला के विभिन्न माध्यमों से व्यक्त करता रहता है। इस प्रकार संस्कृति की अविरल धारा निरंतर प्रवाहित होती रहती है।

देश या राष्ट्र का प्रत्येक वर्ग उसके उचित उत्थान और सामाजिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। बुद्धिजीवी अपनी बुद्धि के बल पर, धनिक वर्ग अपनी आर्थिक शक्ति से, उद्यमी अपने साहसिक प्रयासों से, और श्रमिक वर्ग अपने श्रम के द्वारा—सभी देश और समाज की बहुआयामी प्रगति के लिए प्रयासरत रहते हैं। यद्यपि यह कहा जाता है कि प्रत्येक वर्ग अपने-अपने क्षेत्र का शोषण करता है, किंतु उनके शारीरिक और बौद्धिक योगदान को नज़रअंदाज़ करना एक भूल होगी। आवश्यकता इस बात की है कि सभी वर्गों को कार्य क्षेत्र में लाया जाए, उनके बीच समन्वय स्थापित किया जाए, और यह सुनिश्चित किया जाए कि प्रत्येक वर्ग का स्वार्थ मर्यादा के भीतर रहे।

इन सभी वर्गों में श्रमिक वर्ग राष्ट्र की जीवनरेखा के रूप में कार्य करता है। इसमें कारीगर समुदाय अपनी लगन, प्रतिभा और शिल्पकला से संस्कृति में नवजीवन का संचार करता है और सृजनात्मक अभिव्यक्ति के नए आयाम खोलता है। उनके हस्तशिल्पों में अतीत की गरिमा झलकती है और उनके कार्यों से जातीय गौरव की ध्वनि सुनाई देती है। हीनभावना से मुक्त होकर उन्होंने अपने व्यापक चिंतन और नवाचार के बल पर समाज में एक विशिष्ट स्थान अर्जित किया है। कारीगर वर्ग में जांगिड़ समाज की भूमिका विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

जांगिड़ ब्राह्मण जाति की उत्पत्ति ब्रह्मऋषि अंगिरा से मानी जाती है। सृष्टि के आरंभ में महर्षि अंगिरा अग्नि तत्व से उत्पन्न हुए थे, जैसा कि “ये अंगार संथा अंगिरसोऽभवेन” में वर्णित है। वे ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक थे। कहा जाता है कि वेदों की उत्पत्ति स्वाभाविक रूप से ब्रह्मऋषि अंगिरा के हृदय में हुई थी। वे अग्निहोत्र के आविष्कारक, मंत्रद्रष्टा, महान धनुर्धर, ग्वाले, उपनिषदों के विद्वान, तक्षशिला विश्वविद्यालय के संस्थापक और कृषि अनुसंधानकर्ता थे। अपने निर्भीक और गतिशील नेतृत्व के कारण यह गौरवशाली और विजयी ऋषि जांगिड़ ऋषि कहलाए।

कहा जाता है कि अंगिरा ने शाक द्वीप, क्रोंच द्वीप और कुरु द्वीप पर विजय प्राप्त की थी, जो आज के यूरोप और अफ्रीका के कुछ हिस्सों से मेल खाते हैं। उन्होंने अनेक नगरों और क्षेत्रों की स्थापना की। अंकारा (तुर्की), अंगारा (रूस) और अंगोला (अफ्रीका) जैसे प्राचीन नाम अंगिरा की स्मृति को संजोए हुए हैं। अंगिरा वंश में महर्षि अथर्वंगिरस, देवगुरु बृहस्पति, आप्त्य और सुधन्व जैसे ऋषियों ने अथर्ववेद की रचना में योगदान दिया। इस परंपरा में अनेक विश्वकर्मा हुए हैं। आदि विश्वकर्मा की पहचान को लेकर विद्वानों में मतभेद है—कुछ उन्हें महर्षि भुवन के पुत्र मानते हैं तो कुछ अंगिरा के पुत्र सुधन्व को प्रथम विश्वकर्मा मानते हैं। तथापि, यह सर्वमान्य है कि “अंगिरो सिजांगिड” उस क्षेत्र को सूचित करता है जहां अंगिरा ऋषि का वास था, जो कालांतर में जांगीरा कहलाया और उनके वंशज जांगिड़ कहे गए।

महर्षि विश्वकर्मा को भारत के 18 प्राचीन शिल्पाचार्यों में एक माना जाता है। उन्होंने वास्तुकला और शिल्पकला में अनेक नवाचार किए और गरुड़, मयूर, पुष्पक, कमांग, शतकुंभ, सोम्यन जैसे उड़न यंत्रों का निर्माण किया। उनके शिष्यों ने शस्त्रों और वाद्य यंत्रों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

कलियुग के आरंभ से लेकर वर्तमान समय तक असंख्य वैज्ञानिकों, शिल्पियों, संतों, ऋषियों और सम्राटों ने भारत की वास्तुकला, मूर्तिकला, काष्ठकला, चित्रकला और धार्मिक संस्कृति की विरासत को सुरक्षित और गौरवान्वित किया है।

जांगिड़ समाज की विभिन्न शाखाएं भारत के अनेक भागों में फैली हुई हैं। वे विभिन्न गोत्रों और वंशों से संबंधित हैं, जिनमें कश्यप गोत्र और भाम वंश विशेष रूप से व्यापक हैं। कुछ विद्वान गौतम को धपू वंश से भी संबंधित मानते हैं। ये शाखाएं कभी-कभी अपने विशिष्ट पूर्वजों या मूल गांवों के नाम पर पहचानी जाती हैं। राजस्थान में धामू वंशी की कई उपशाखाएं निवास करती हैं। यह उल्लेखनीय है कि ‘धामा’ और ‘बामू’ जैसे शब्दों में जो भाषिक साम्य दिखता है, वह उनके एक ही मूल से उत्पन्न होने की ओर संकेत करता है। समय के साथ उच्चारण में हुए अंतर से नामकरण की विभिन्न शैलियां विकसित हो गईं—जो एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। फिर भी इसमें कोई संदेह नहीं कि वे वंश या परिवार जिनसे प्रतिभाशाली और कुशल व्यक्ति उत्पन्न हुए, वे प्रसिद्ध हुए और समाज में प्रभावशाली बने।

राजस्थान के शेखावाटी क्षेत्र में देश के विभिन्न राज्यों से आए शिल्पकार बसे हुए हैं और अपनी तकनीकी दक्षता के लिए प्रसिद्ध हैं। धामू वंश के लोग देश के विभिन्न भागों में निवास करते हुए अपनी जीविका अर्जित कर रहे हैं और शिल्पकला के विकास में समर्पित भूमिका निभा रहे हैं।

यहां सभी धामू शाखाओं के ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की चर्चा करना उद्देश्य नहीं है। अतः केवल बिसाऊ के धामू परिवार की एक ऐतिहासिक झलक प्रस्तुत की जा रही है, जिसके साथ उनके वंशवृक्ष और प्रमुख परिवार प्रमुखों का संक्षिप्त विवरण जोड़ा गया है।धामू-वंश

मणीराम बहीभाट की बहियों से संकेत मिलता है कि धामूवों का मूलस्थान राजस्थान ही था। उनका मूल निवास स्थान श्री डूंगरगढ़ तहसील में 'लूणियो गुंसाईसर' गांव बताया जाता है। वहां से उठकर उनके परिवार रतनगढ़ पट्टी से निकलते हुए फतेहपुर तहसील के गांवों में बसते गए। किस शताब्दी में आये, इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता। किन्तु यह सत्य है कि धामू उक्त पट्टी में अधिक बसे हुए हैं, इसलिए संभावित निष्क्रमण से इंकार नहीं किया जा सकता। वर्तमान में इन स्थलों से उठकर बहुत बड़ी संख्या में धामू परिवार राजस्थान ही नहीं भारत के कोने-कोने में बसे हुए हैं।

मणोराम बहीभाट व दीना ढाढी की बहियों में धामू वंश की 25 पीढ़ियों का विवरण दिया हुआ है जिनमें अंतिम नाम अमराराम का है जो बिसाऊ आकर वसा था। बिसाऊ के धामू उसी की संतान हैं। जानकारी के लिए उक्त पीढ़ियों के नाम यहां दिये जा रहे हैं |

बीराणिया से निकास

बिसाऊ के धामू परिवार का विकास बीराणिया गांव से हुआ है। यह गांव फतेहपुर से लगभग 12 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित है। वर्तमान में यह एक ग्राम पंचायत मुख्यालय है तथा सीकर और चूरू जिलों की सीमा पर स्थित है। लगभग 500 वर्ष पूर्व ‘योग’ नामक एक जांगिड़ महिला ने इस गांव की स्थापना की थी। उनके वंशज, जिनमें धामू वंश की अनेक शाखाएं शामिल हैं, समय के साथ सुन्नू, चूरू और सीकर जिलों के कई गांवों व कस्बों में जाकर बस गए। वर्तमान में बीराणिया गांव में धामू वंश के जांगिड़ ब्राह्मणों के लगभग 12 परिवार निवास कर रहे हैं। यह गांव कुल मिलाकर लगभग 350 घरों की एक बस्ती है। यह फतेहपुर–रतनगढ़ बस मार्ग पर स्थित है, जिसके पास ऐसावा, भूखरेड़ी जैसे गांव स्थित हैं। यहां एक उच्च प्राथमिक स्तर का सरकारी विद्यालय भी है। इस गांव के पास लगभग 12,000 बीघा कच्ची भूमि कृषि योग्य है।

बीराणिया गांव की स्थापना के संबंध में एक जनश्रुति प्रसिद्ध है कि फतेहपुर (सीकर) के नवाब का एक प्रिय मिस्त्री, जो स्वयं भी फतेहपुर का निवासी था, अपनी विधवा बेटी बीरा के दुःख से हमेशा व्यथित रहता था। बीरा के पति का असमय निधन हो गया था, जिसके बाद वह अपने छोटे बच्चों को लेकर अपने मायके लौट आई और वहीं रहने लगी। मिस्त्री को अपनी बेटी की पीड़ा और उसके बच्चों के भविष्य की चिंता सताती रहती थी।

एक दिन नवाब ने मिस्त्री की उदासी का कारण पूछा। तब मिस्त्री ने अपनी बेटी की दुखद कथा सुनाई और उसके जीवन तथा बच्चों के भविष्य को लेकर चिंता प्रकट की। नवाब ने सहानुभूति दिखाते हुए बीरा को गुज़ारे के लिए 1600 बीघा ज़मीन प्रदान कर दी। बीरा अपने बच्चों को लेकर उस स्थान पर बस गई और खेती-किसानी करके जीवनयापन करने लगी। धीरे-धीरे अन्य जातियों के लोग भी वहां आकर बसने लगे। इस प्रकार एक छोटी सी बस्ती ने गांव का रूप ले लिया और उस गांव का नाम बीरा के नाम पर बीराणिया पड़ा। आज भी उस गांव में बीरा के पुत्रों द्वारा निर्मित हवेली जीर्ण अवस्था में खड़ी है, जो उनके परिश्रमी जीवन की मूक गवाही देती है।

बीरा के मायके, ससुराल तथा वंश की जानकारी प्राप्त करने के लिए मुझे बीराणिया, बेथलिया, भूखरेड़ी, लावड़ा आदि कई गांवों की यात्राएं करनी पड़ीं। बीराणिया में वयोवृद्ध श्री डूंगरमल जी बामू से भेंट हुई तथा बेथलिया में धामू वंश के बही-भाट स्वर्गीय माणकराम जी के पोते श्री सांवताराम जी और कानाराम जी से मुलाकात हुई। लावड़ा गांव में दीनेखां बादी के पोते से भी भेंट हुई। इनमें से स्वर्गीय माणकराम जी बही-भाट की वंशावली ही प्रमाणिक पाई गई। इसी कारण श्री सांवताराम जी को बिसाऊ बुलाया गया और तीन दिन तक उनकी बहियों के आलेख पढ़े गए। चूंकि आलेख मुड़े हुए और पुराने मारवाड़ी में लिखे हुए थे, इसलिए अर्थ निकालने में काफी परिश्रम करना पड़ा। बही पढ़ने में श्री सांवताराम जी ने अत्यंत सहयोग किया। उसी बही से प्राप्त वंशावली का संक्षिप्त विवरण यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।

बीरा का पितृ पक्ष

फतेहपुर बसने से पहले वहां एक दाणी (छोटी बस्ती या वाणी) थी, जिसे बोरा के पिता के पूर्वजों ने बसाया था। बाद में नवाब फतेरखां ने उस क्षेत्र को जीतकर वहां फतेहपुर नगर की स्थापना की, जो आज फतेहपुर (शेखावाटी) के नाम से जाना जाता है। समय के साथ वह पुरानी दाणी फतेहपुर शहर की सीमा में समाहित हो गई और उसका मूल नाम लुप्त हो गया। यह दाणी निश्चित रूप से नकवालों से किसी न किसी प्रकार के सम्पर्क में रही होगी।

उसी वंश में श्री सुखाराम का पुत्र मीराराम था, जिसकी पुत्री का नाम मीरां था। मोटाराम उस समय नवाब फतेरखां का विश्वासपात्र और सेनापति (पुसातिय) था। उसका काल संवत 1766 से 1787 तक रहा था।

बीरा का ससुराल पक्ष

यहां दिया गया विवरण “धामू” वंश की एक समृद्ध और ऐतिहासिक गाथा है, जिसमें उनके पूर्वजों, वंश विस्तार, बसावट, और सामाजिक-सांस्कृतिक योगदान का वर्णन किया गया है। धामू पीढ़ी का प्रमुख पूर्वज महपाल था, जिसने सामड़ीवाल तेजा अखावत की पुत्री घोषणी से विवाह किया था। उनके दो पुत्र — बीझो (या बैंजो) और पालो — तथा चार पुत्रियाँ — करमा, रुपां, हरखी और बरजों थीं। बीझो का विवाह तुलसी से हुआ, जो धनी धनावत को पग गई थी। उनके दो पुत्र चूहड़ और पाभो हुए। पांची का विवाह गोरों से हुआ, जो गंगावत की पुत्री थी। उनसे चार पुत्र उत्पन्न हुए: मुद्द, जालप, और पुरण।

वालाय का विवाह मोटागांव की बरवाहनी महिला से हुआ, और वे पाचाराम गांव (बूखरड़ी) में आकर बस गए। उन्होंने गांव में एक विशाल तालाब बनवाया, जो आज भी मौजूद है। बोग को नवाब की ओर से 16,000 बीघा जमीन मिली, और वहीं वह बस गए। धामू वंश के प्रमुख पूर्वजों में चलाराम ने बेलासर, कालू के पुत्र करता ने मोभासर, समद ने सांबड़ा, तेजा ने हाखातर और मौरी ने बीराणिया गांव बसाया। बीरा के तीन पुत्र — लाखा, मालो और सागा — हुए। लाखा का विवाह बाली अचल डालावत की पुत्री रेखा से हुआ, जिनसे टोर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ।

टोर का विवाह अड़ीचवाल गोदू धरमावत की पोती से हुआ, जिससे उनके पाँच पुत्र हुए — जगू, बालो, किसनो, पेमो और अमरो। जगू के दो पुत्र मेहो और हुलसो हुए। मेटो की दूसरी पत्नी से बिरो और रूपो नामक पुत्र हुए, जो कादिए में जाकर बस गए। अमराराम बिसराऊ में जाकर बसे। अमराराम का विवाह सितक सोमा की पुत्री पेमा से हुआ, जिससे श्यामाराम नामक पुत्र हुआ। श्यामाराम का विवाह लीयणी भवि समायत की पुत्री पंगा से हुआ, जिससे चार पुत्र — गोदू, भादर, जैसी और नोपो — उत्पन्न हुए। जैसाराम का एक पुत्र अर्जुन हुआ, लेकिन भादरराम, जैसाराम और नोपाराम की आगे की पीढ़ियों का कोई विवरण प्राप्त नहीं होता।

गोदूराम का विवाह बरवाडिनी भोजा जयरामावत की पुत्री चूनी से हुआ, जिससे तीन पुत्र — चोखो, जगू और डूंगर — हुए। इनके वंश का विस्तार आगे के पृष्ठों में वर्णित किया गया है। यहां बीरां के वंश का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत है, जो माणकचन्द बहीभाट की बही में मिलता है।

बीराणिया और उसके आसपास के क्षेत्रों में बीरां के संदर्भ में कई जनश्रुतियां प्रचलित हैं। श्री डूंगरमल जी धामू (बीराणिया) से प्राप्त कथानक के अनुसार, फतेहपुर के बरवाड़िया गोत्र का मोटाराम नवाब का राजमिस्त्री या मुसाहिब था। उसकी पुत्री बोरा का विवाह बूखरड़ा गांव के जालिप धामू से हुआ था। पति की अकाल मृत्यु के पश्चात् बोरा अपने तीन पुत्रों के साथ मायके फतेहपुर लौट आई। कुछ समय बाद परिवार की किसी स्त्री की व्यंग्यात्मक टिप्पणी से आहत होकर, बोरा ने अपने पिता से कह दिया कि वह अब उनके घर का अन्न भी ग्रहण नहीं करेगी। पिता के समझाने पर भी वह नहीं मानी और अपने बच्चों के साथ फतेहपुर से 12 कि.मी. दूर एक रेतीले टीले पर झोंपड़ी बनाकर रहने लगी। वह निडर और साहसी महिला थी।

बोरा के पिता ने दुखी होकर नवाब को सच्ची स्थिति बताई। नवाब ने उसे 16,000 बीघा जमीन आबंटित की। बोरा ने वहां किसानों को बसाया और उन्हें लगान पर खेती करने को दी। वह हर वर्ष नवाब को ऊन से बनी एक कंबल भेंट करती थी। धीरे-धीरे उस क्षेत्र में बीराणिया गांव बस गया। आज भी उसके नाम पर दो जोहड़ विद्यमान हैं: एक 'बीरबाना' और दूसरा 'खात्याणी' नाम से प्रसिद्ध है।

डूंगरमल जी बीरां के तीन पुत्रों के नाम या उनकी आगे की पीढ़ी की कड़ी जोड़ने में असमर्थ रहे, परंतु उन्होंने बताया कि टोर की पीढ़ी का एक वंशज बिसाऊ में बसा। इससे यह पुष्टि होती है कि दीनेखांव ढाढी की बही में जो टोर और बिसाऊ की वंशावली एक साथ दी गई है, वह तथ्यपरक है। इसमें कोई संदेह नहीं कि बिसाऊ आने वाला प्रथम पूर्वज अमराराम धामू ही था। डूंगरमल जी के अनुसार, टोर के चार पुत्र थे। एक बीराणिया में, और अन्य तीन क्रमशः नौरंगसर (सालासर), हरसावा और सधीणसर में बस गए।

बीराणिया से रामू और जीवन नामक दो भाई रतनगढ़ गए। बीराणिया से ही कुछ लोग रामगढ़ (शेखावाटी) भी गए। सधीणसर से लांवड़ा, दीनारपुर, येथलियो और वीरमसर गए, जबकि नौरंगसर वंश से सालासर, झिलमिल, मांडोली और रणमिलास पहुंचे। हरसावा वंश वहीं रहा। इस प्रकार बीरां और उसके पुत्रों के वंशज सम्पूर्ण शेखावाटी क्षेत्र में फैल गए। उनकी वीरता के कई किस्से आज भी लोककथाओं में जीवित हैं। इसी कारण आज भी बीराणिया के धामू 'नाळ-पाळ के धणी' कहलाते हैं।

बाद में बीराणिया गांव पड़ियारा के ठाकुरों को सौंप दिया गया। उन्होंने किसानों पर अत्याचार किए, जिससे बीकानेर महाराज नाराज हो गए और उन्हें पकड़ने के लिए सैनिक भेजे। ठाकुर फतेहपुर के नवाब की शरण में गए और सैनिक सेवा में लग गए। नवाब ने उन्हें बीराणिया सौंप दिया। आज भी वहां उनका एक छोटा किला मौजूद है।

बीराणिया से बिसाऊ

धामू पीढ़ी का प्रमुख पूर्वज महपाल था, जिसने सामड़ीवाल तेजा अखावत की पुत्री घोषणी से विवाह किया था। उनके दो पुत्र और बारह पुत्रियां थीं। पुत्रों में एक का नाम बीझो (या बैंजो) और दूसरे का पालो था। पुत्रियों के नाम थे: करमा, रुपां, हरखी और बरजों। बीझो ने धनी धनावत की पुत्री तुलसी से विवाह किया। उनके दो पुत्र हुए—चूहड़ और पाभो। पाभो का विवाह मेहो गंगावत की पुत्री गोरों से हुआ। उनके चार पुत्र हुए—मुद्द, जालप, पुरण और एक अन्य। पालो को बरवाणी मोटाग्राम की पुराव्याही पाचाराम ने भूखरेड़ी में बसाया। उन्होंने गांव में एक बड़ा तालाब बनवाया जो आज भी अस्तित्व में है। उन्हें नवाब की ओर से 16000 बीघा जमीन प्राप्त हुई, जिस पर उनका वंश फला-फूला।

धामू वंश के अन्य प्रमुख पूर्वजों में चलाराम ने बेलासर गांव बसाया, कालू के पुत्र करता ने मोभासर बसाया, समद ने सांबड़ा और तेजा ने हाखातर गांव की स्थापना की। मौरी ने बीराणिया बसाया। बीरा के तीन पुत्र थे—लाखा, मालो और सागा। लाखा का विवाह बाली अचल डालावत की पुत्री रेखा से हुआ। उनके एक पुत्र टोर का जन्म हुआ। टोर को अड़ीचवाल गोदू धरमावत की पोती पूरी बारी के रूप में मिली। टोर के पांच पुत्र हुए—जगू, बालो, किसनो, पेमो और अमरो। जगू के दो पुत्र हुए—मेहो और हुलसो। मेहो की दूसरी पत्नी से दो और पुत्र हुए—बिरो और रूपो, जो कादिये गांव में बस गए। अमराराम बिसाऊ जाकर बस गए।

अमराराम का विवाह सितक सोमा की पुत्री पेमा से हुआ। उनसे एक पुत्र स्यांपराम हुआ। स्यांपराम का विवाह लीयणी भवि समायत की पुत्री पंगा से हुआ। उनके चार पुत्र हुए—गोदू, भादर, जैसी और नोपो। जैसाराम के एक पुत्र अर्जुन हुए, लेकिन भादरराम, जैसाराम और नोपाराम की पीढ़ी का आगे कोई विवरण नहीं मिलता।

गोदूराम का विवाह बरवाडिनी भोजा जयरामावत की पुत्री चूनी से हुआ, जिससे उनके तीन पुत्र हुए—चोखो, जगू और डूंगर। आगे के दस्तावेज़ों में इन तीनों पुत्रों की संतानों का विस्तार से विवरण दिया गया है। यहां बीरां के पुत्रों की पीढ़ी का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है, जो माणकचन्द बहीभाट की बही में प्राप्त हुआ है।

बीराणिया और उसके आसपास बीरां से संबंधित कई जनश्रुतियां प्रचलित हैं। श्री डूंगरमल जी धामू (बीराणिया) से मुझे जो कथानक प्राप्त हुआ, वह इस प्रकार है:

फतेहपुर के बरवाड़िया गोत्र का मोटाराम, नवाब का राजमिस्त्री या विश्वासपात्र मुसाहिब था। उसकी पुत्री बोरा का विवाह निकटवर्ती भूखरड़ा गांव के जालिप धामू से हुआ था। बोरा के पति का असमय निधन हो गया। वह अपने तीन पुत्रों को साथ लेकर मायके फतेहपुर लौट आई। दो-तीन वर्षों के बाद, परिवार की एक महिला ने व्यंग्य में कहा, "पेट में से तो निकल गई पर हांडी में से नहीं निकली।" यह बात बोरा को बहुत चुभी। उसने अपने पिता से स्पष्ट कहा कि अब वह उनके घर का एक दाना भी ग्रहण नहीं करेगी। पिता ने बहुत समझाया, किंतु वह नहीं मानी और अपने बच्चों को लेकर फतेहपुर से दक्षिण-पश्चिम दिशा में 12 किलोमीटर दूर एक रेतीले टीले पर झोंपड़ी बनाकर रहने लगी। वह साहसी और दृढ़ नारी थी, इसीलिए निर्भयता से वहां रहने लगी।

उसके पिता ने दुखी होकर नवाब के समक्ष जाकर अपनी व्यथा सुनाई। नवाब ने करुणावश 16000 बीघा का कांकड़ भूमि बोरा के नाम कर दी। बोरा ने वहां किसानों को बुलाकर बसाया और उन्हें भूमि जोतने के लिए लगान पर दी। बोरा हर साल ऊन से बना एक बड़ा कंबल (बरड़ी) नवाब को भेंट स्वरूप देती थी। धीरे-धीरे यह बस्ती बीरांणिया गांव के रूप में विकसित हो गई। बोरा के नाम पर दो जोहड़ें आज भी मौजूद हैं—एक को 'बीरबाना' और दूसरी को, जो लगभग पच्चीस बीघा की है, 'खात्याणी' कहा जाता है।

श्री डूंगरमल जी बीरां के तीन पुत्रों के नाम नहीं बता सके, न ही उनसे आगे की पीढ़ी की कड़ी जोड़ पाए। उन्होंने बताया कि टोर की पीढ़ी का एक वंशज बिसाऊ गया था। इससे यह प्रमाणित होता है कि दीनेखां ढाढी की बही में बिसाऊ शाखा के साथ टोर का नाम जोड़ा गया है, वह सही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि बिसाऊ में बसने वाले प्रथम पूर्वज अमराराम धामू ही थे। उन्होंने बताया कि टोर के चार पुत्रों में से एक बीराणिया में रहा और शेष क्रमशः नौरंगसर (सालासर), हरसावा और सधीणसर बस गए। बीराणिया वंश से ही रामू और जीवण नामक दो भाई रतनगढ़ गए। बीराणिया से ही कुछ लोग रामगढ़ (शेखावाटी) गए। सधीणसर शाखा से लांवड़ा, दीनारपुर, येथलियो और वीरमसर बसे। नौरंगसर से सालासर, झिलमिल, मांडोली और रणमिलास जैसे गांव जुड़े। हरसावा वंश के लोग वहीं बसे रहे।

इस प्रकार बीरां और उसके पुत्रों की संतानों की जड़ें समस्त शेखावाटी क्षेत्र में फैल गईं। उनकी वीरता की कहानियां आज भी लोकपरंपरा में जीवित हैं। यही कारण है कि आज भी बीराणिया के धामू वंशज 'नाळ-पाळ के धणी' के नाम से जाने जाते हैं।

बाद में बीराणिया गांव पड़ियारा के ठाकुरों को दे दिया गया। उन्होंने वहां के किसानों पर अनेक अत्याचार किए। बीकानेर महाराज ने उनके इस व्यवहार से नाराज़ होकर उन्हें पकड़ने के लिए घुड़सवार सैनिक भेजे। पड़ियारा के ठाकुर फतेहपुर के नवाब की शरण में चले गए और नवाब की सेना में सेवा देने लगे। बाद में नवाब ने उन्हें बीराणिया गांव प्रदान कर दिया। उनके समय में वहां एक छोटा सा गढ़ बनाया गया, जो आज भी बीराणिया में स्थित है।

चोखाराम जी का वंश

लिखमाराम जी के दो पुत्र थे – किसनाराम जी और खेताराम जी। किसनाराम जी के तीन पुत्र हुए: गोपीराम जी, स्योजीराम जी और डालूराम जी। खेताराम जी की कोई संतान नहीं थी, इसलिए उन्होंने अपने भतीजे डालूराम जी को गोद ले लिया।

गोपीराम जी अपने समय के प्रसिद्ध कारीगरों में गिने जाते थे। उनके एक पुत्र झुंथाराम थे, जिनका निधन युवावस्था में ही हो गया। उनकी तीन पुत्रियाँ – मूंगी, सरस्वती और नारायणी – थीं, जिनका विवाह रामगढ़ में हुआ था। चूंकि उनका कोई पुत्र नहीं था, इसलिए शिवनाथराय जी ने अपने ज्येष्ठ पुत्र नागरमल जी को गोपीराम जी की ओर गोद दे दिया। वृद्धावस्था में गोपीराम जी का देहांत हो गया।

नागरमल जी कारीगरी के क्षेत्र में कुशल थे और कुछ समय तक कार पेंटरी का कार्य भी किया। उन्होंने सवाई माधोपुर की सीमेन्ट फैक्ट्री में 25 वर्षों तक सेवा की और लगभग 1980 में सेवानिवृत्त होकर बिसाऊ लौट आए। वे मशीनरी और बिजली के काम में भी निपुण थे। उन्होंने अपने पिता शिवनाथराय जी के साथ चांदी के आभूषण बनाने का काम भी किया। उनके तीन पुत्र – बाबूलाल, पुरुषोत्तम और देवकरण – तथा एक पुत्री संपत्ति देवी थी, जिनका विवाह नवलगढ़ में हुआ।

बाबूलाल जी का विवाह फतेहपुर के बरवाड़िया परिवार में हुआ। मेट्रिक उत्तीर्ण करने के बाद वे राजस्थान सरकार के कृषि विभाग में कार्यरत हुए और कर्मचारी संघ में भी सक्रिय भूमिका निभाई। उनके दो पुत्र और दो पुत्रियाँ हैं। ज्येष्ठ पुत्र कमलेश का विवाह रतनगढ़ में हुआ और उनकी एक पुत्री है। दूसरा पुत्र अभी काम सीख रहा है।

पुरुषोत्तम का विवाह फतेहपुर के बरवाड़िया परिवार की त्रिवेणी देवी से हुआ। उन्होंने कोटा में घड़ी की मरम्मत और कलपुर्जों की दुकान स्थापित की। उनके एक पुत्र सचिन और चार पुत्रियाँ हैं।

देवकरण ने विद्यालयीन शिक्षा के बाद तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त किया और सिथेटिक्स धागा कारखाने में काम करने लगे। वहीं वे आज भी कार्यरत हैं। उनके एक पुत्र राहुल और एक पुत्री है।

स्योजीराम जी, किसनाराम जी के दूसरे पुत्र, के दो संतानें थीं: एक पुत्र भोलाराम, जिनका बचपन में ही देहांत हो गया, और एक पुत्री मोठी, जिनका विवाह रामगढ़ में हुआ। पुत्र न होने के कारण उन्होंने चूरु के धामू परिवार से शिवनाथराय जी को गोद लिया। गोपीराम और स्योजीराम की जोड़ी को परिवार में विशेष स्थान प्राप्त था। वे बराड़ में रहकर अच्छी कमाई करते थे और दोनों कुशल कारीगर माने जाते थे। स्योजीराम जी अफीम का सेवन करते थे और चांदी के कलदार रुपयों से ब्याज का कार्य भी करते थे। दोनों भाई व्यंग्यात्मक भाषा के जानकार थे और उनके किस्से आज भी परिवार में चर्चित हैं। गोपीराम जी का पहले निधन हुआ और उनके कुछ वर्षों बाद लगभग 80-85 वर्ष की आयु में स्योजीराम जी का भी देहांत हो गया।

शिवनाथराय जी अत्यंत सरल, ईमानदार और मितभाषी व्यक्ति थे। उनकी चांदी के आभूषणों की दुकान उत्तरी दरवाजे के बाजार में थी, जहाँ वे मुख्यतः मुस्लिम परिवारों के आभूषण बनाते थे। दुकान पर हमेशा चिलम और तंबाकू की खुशबू के बीच काम चलता रहता था। अपने इन्हीं गुणों के कारण उन्होंने बड़े परिवार को सफलता से संभाला। उनका विवाह मंडावा के सामड़ीवाल परिवार की जानकी देवी से हुआ। उनके छह पुत्र – नागरमल, सीताराम, हरिराम, गंगाराम, शुभकरण और शंकरलाल – तथा एक पुत्री पन्नादेवी थीं, जिनका विवाह लक्ष्मणगढ़ के खरादी परिवार में नत्थूराम जी से हुआ।

सीताराम जी का प्रथम विवाह चूरु के राजोतिया परिवार की भागवती देवी से हुआ, जिससे तीन पुत्र – मधुसूदन, गोविंद, मुकेश – और एक पुत्री गुड़ी हुई। भागवती देवी की आकस्मिक मृत्यु के बाद उनका दूसरा विवाह बिसाऊ के लदोया परिवार की कन्या से हुआ, जिससे धर्मदेव, गुटल, बंटी और संजय नामक चार पुत्र और दो पुत्रियाँ हुईं। सीताराम जी चांदी के गहने व फर्नीचर बनाते थे। बाद में सीमेन्ट फैक्ट्री में कार्यरत रहे और फिर लीबिया भी गए। लौटकर कोटा के समीप मुड़क फैक्ट्री में कार्य किया और अंततः बिसाऊ में घड़ी व सिलाई मशीन की मरम्मत का कार्य शुरू किया।

मधुसूदन ने वाणिज्य में स्नातक किया और अध्यापकों के प्रिय छात्र रहे। उनका विवाह नवलगढ़ के अड़ीचवाल परिवार में हुआ। दो पुत्र व दो पुत्रियाँ हैं। उन्होंने सवाई माधोपुर में नौकरी की, फिर लुधियाना में अकाउंटेंट बने और वर्तमान में एक निजी फर्म में इनकम टैक्स विभाग संभालते हैं। गोविंद सवाई माधोपुर में कार्यरत हैं, धर्मदेव जयपुर में कार्यरत हैं, और मुकेश खाड़ी देश से यात्रा कर वापस लौट चुके हैं।

हरिराम जी का विवाह झुंझुनू के बंदुखिया परिवार में हुआ। वे कुशल फर्नीचर निर्माता हैं और पिछले चालीस वर्षों से बरगढ़ (उड़ीसा) में रह रहे हैं। उनके व्यापार की कई दुकानें हैं। उनके चार पुत्र – बाबूलाल, सज्जन, महेन्द्र, राजू – और दो पुत्रियाँ – ललिता, शारदा – हैं। 1994 में उनके पुत्र बाबूलाल का आकस्मिक निधन मुंबई में हुआ, जिससे परिवार को गहरा आघात लगा।

गंगाराम जी का विवाह चूरु के चूयेल परिवार की गिन्नी देवी से हुआ। उन्होंने सीमेन्ट फैक्ट्री में नौकरी की और बाद में मेघालय के बिजली संयंत्र में मैकेनिक नियुक्त हुए। उच्च रक्तचाप के कारण वे बिसाऊ लौटे, और 1984 में उनका निधन हो गया। उनके पुत्र श्यामसुंदर (B.Sc. और कंप्यूटर प्रशिक्षित), सत्यनारायण (मेघालय में कार्यरत) और प्रदीप (जयपुर में कार्यरत) हैं।

शुभकरण जी का विवाह रामगढ़ के मीसण परिवार में देवकी देवी से हुआ। वे कुछ समय अध्यापक रहे, फिर बस चलाने लगे, फिर राजनीति में सक्रिय हुए। उन्होंने बिसाऊ नगर पालिका में सुधार के लिए कई प्रयास किए और रामलीला का आयोजन भी शुरू करवाया। वे सामाजिक और सांस्कृतिक जागरण में भी सक्रिय हैं। उनके एक पुत्र परमेश्वर और दो पुत्रियाँ हैं। परमेश्वर का विवाह झुंझुनू के दनेवा परिवार की किरण से 20 जून 1995 को हुआ।

शंकरलाल जी का विवाह रामगढ़ के मीसण परिवार में हुआ। वे जयपुर में एक कारखाना चलाते हैं और नयाखेड़ा में उनका निजी मकान है। उनका एक पुत्र मनोज है, जो अपंग होने के बावजूद महाविद्यालय में अध्ययनरत है।

लिखमाराम जी के दूसरे पुत्र खेताराम जी की कोई संतान नहीं थी, इसलिए उन्होंने अपने भाई किसनाराम जी के तृतीय पुत्र डालूराम जी को गोद लिया। किन्तु डालूराम जी की भी कोई संतान नहीं हुई, इसलिए उन्होंने केसूराम के पौत्र तोलाराम को गोद लिया।

तोलाराम जी, दूल्हाराम जी के वंशज, केसूराम जी के पौत्र और चूनाराम जी के पुत्र थे। डालूराम जी के स्वर्गवास के बाद वे स्थायी रूप से बिसाऊ के जगतपुरा क्षेत्र में रहने लगे। वहां उनका अपना स्वतंत्र आवास था। प्रारंभ में उन्होंने लकड़ी का कार्य किया, बाद में शिवनाथ राय की दुकान पर चांदी का काम करने लगे। कुछ वर्षों पश्चात स्व. मन्नालाल जी उन्हें अपने साथ दरभंगा ले गए। सन् 1953-54 के आसपास उन्होंने सवाईमाधोपुर स्थित सीमेंट फैक्ट्री में कार्य करना प्रारंभ किया, जहाँ से सेवानिवृत्त होकर वे पुनः बिसाऊ लौट आए। उनका विवाह चूरू के चोयल परिवार में पूर्णी देवी के साथ हुआ। उनके तीन पुत्र नरदेव, निरंजन और विजय तथा दो पुत्रियां हुईं।

नरदेव जी ने बिसाऊ से हाई स्कूल उत्तीर्ण कर तकनीकी प्रशिक्षण प्राप्त किया और बिजली फिटिंग कार्य में दक्ष हो गए। वे इस कार्य के अनुबंधक बने और "एल फॉर्म" प्रमाणित कर जारी करने का अधिकार प्राप्त किया। उनके अनुभव और कार्यकुशलता के कारण उनकी योग्यता एक अभियंता के समकक्ष मानी जाने लगी। उन्होंने राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और हिमाचल प्रदेश की विभिन्न सिंथेटिक धागा फैक्ट्रियों में कार्य किया। बाद में उन्होंने जयपुर में स्वतंत्र व्यवसाय भी आरंभ किया। दिनांक 14 जुलाई 1994 को जयपुर में उनका हृदयगति रुक जाने से आकस्मिक निधन हो गया। उनका विवाह रामगढ़ के मीसण परिवार में हुआ था। उनके पाँच पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्र पवन कुमार, सुशील कुमार, सतीश कुमार, मनोज कुमार और आलोक सभी जयपुर में तकनीकी कार्यों से जुड़ गए। इनमें पवन, सुशील, सतीश और मनोज का विवाह हो चुका था। आलोक तकनीकी प्रशिक्षण ले रहे थे।

निरंजन लाल जी का पहला विवाह झुंझुनू के बंदूखिया परिवार में हुआ था, किंतु पुत्री के जन्म के समय उनकी पत्नी का निधन हो गया। उनका दूसरा विवाह चूरू के भिराणिया परिवार में हुआ। उनके ससुर श्री माधव जी ने उन्हें चूरू के जलदाय विभाग में नियुक्त करवा दिया। उनकी पत्नी भी सरकारी विद्यालय में अध्यापिका के पद पर कार्यरत रहीं। निरंजन जी के चार पुत्रियाँ और दो पुत्र हैं।

विजय कुमार जी, एक दक्ष बढ़ई थे। उनका विवाह फतेहपुर के बरवाड़िया परिवार में श्री परमेश्वर जी की पुत्री से हुआ। उनके दो पुत्र और दो पुत्रियाँ हैं।

हरदेवाराम जी, चूनाराम जी के पुत्र, सोने-चांदी के कुशल कारीगर थे। उन्होंने विलासपुर में वर्षों तक दुकान चलाई, जहाँ उनके अधीन अन्य कारीगर भी कार्यरत रहे। लेकिन अफीम के व्यसन ने उन्हें दुर्बल बना दिया, जिससे उन्हें व्यवसाय छोड़ना पड़ा। उन्होंने पुनः कई स्थानों पर कार्य करने का प्रयास किया, परंतु स्वास्थ्यगत कारणों से शीघ्र ही उनका स्वर्गवास हो गया। उन्होंने अपने पीछे एक पुत्र सत्यनारायण को छोड़ा।

सत्यनारायण जी का पालन-पोषण तोलाराम जी के सान्निध्य में हुआ। उन्होंने शिक्षा के पश्चात तकनीकी कार्यों में दक्षता प्राप्त की और श्री तोलाराम जी के कारखाने में कार्य करते हुए कुशल टर्नर एवं फीटर बन गए। आगे चलकर वे खाड़ी देशों में काम करने चले गए, जहां एक दशक तक रहकर उन्होंने पूंजी अर्जित की। सन् 1984 में जयपुर लौटकर विश्वकर्मा औद्योगिक क्षेत्र में “राजस्थान प्रोसेर्स” नामक अपना कारखाना स्थापित किया, जिसमें वायर डाइंग मशीन और ग्रेनाइट कटिंग मशीनें तैयार की जाती हैं। उनका विवाह चूरू के चोयल परिवार में हुआ था, जिससे उन्हें दो पुत्र और दो पुत्रियाँ हुईं। दुर्भाग्यवश, उनका बड़ा पुत्र अनिल और उनकी पत्नी एक ही वर्ष में दिवंगत हो गए। तत्पश्चात उन्होंने सीकर से दूसरी पत्नी लाकर विवाह किया, जिससे दो और पुत्र हुए।

नन्दलाल जी के पुत्र बुधराम जी का युवावस्था में निधन हो गया था। बाद में उन्होंने सधीणसर से एक अन्य बुधराम को गोद लिया। वे कुशल लकड़ी कारीगर थे और बराड़ में रहकर अच्छा व्यवसाय किया। उनके पुत्र सोहनलाल जी थे, जो न केवल स्वर्ण आभूषणों के कुशल कारीगर थे, बल्कि दिल्ली में उनकी प्रतिष्ठित दुकान भी थी। वे गांधीवादी विचारधारा से प्रभावित होकर कांग्रेस में शामिल हो गए थे। कानपुर में व्यवसाय में असफलता के पश्चात वे बिसाऊ लौट आए। उनका विवाह फतेहपुर के भिराणिया परिवार में हुआ था। उनके दो पुत्र बजलाल और जानकीप्रसाद तथा दो पुत्रियाँ गिन्नी देवी और गीतादेवी हुईं।

बजलाल जी ने अपने पिता के साथ दिल्ली और कानपुर में कार्य किया। बाद में सवाईमाधोपुर सीमेंट फैक्ट्री में नौकरी की और वहीं से सेवानिवृत्त होकर बिसाऊ लौट आए। उनके पुत्र राजेश का विवाह दो बार हुआ, किंतु दोनों में दुखद अंत हुआ। वर्तमान में वे सीकर में कार्यरत हैं।

जानकीप्रसाद जी ने भी सवाईमाधोपुर में नौकरी की और वहाँ से सेवानिवृत्त होकर बिसाऊ लौटे। उनके चार पुत्र – नवल, पूनम, महेन्द्र और नटवर हैं। नवल को मारुति कंपनी, दिल्ली में नौकरी मिली और उन्हें प्रशिक्षण हेतु जापान भेजा गया। पूनम और महेन्द्र का विवाह भी हुआ और वे क्रमशः शिक्षण और पुस्तकालय सेवा से जुड़े हैं। नटवर दिल्ली में कार्यरत हैं।

भींवाराम जी, दूल्हाराम जी के तीसरे पुत्र, का विवाह निराशनू गांव की पेमाराम जी की बहन से हुआ। उनकी एक पुत्री लक्ष्मी थी, जिनका विवाह दसुंतपुरा में हुआ। उन्होंने बीजाराम जी के पुत्र शिवलाल जी को गोद लिया।

शिवलाल जी, अपने भाई रेखाराम जी के साथ रांची में स्वर्ण-आभूषणों की दुकान चलाते थे। बाद में बिसाऊ में भी उन्होंने दुकान की, परन्तु घाटे के कारण पुनः रांची लौट गए, जहां 1945 में उनका निधन हो गया। वे अपने द्वारा निर्मित चांदी के आभूषणों और रामलीला के मुकुटों के लिए प्रसिद्ध रहे। उनकी पहली पत्नी से एक पुत्र मालीराम हुआ और दूसरी पत्नी से पांच पुत्र – द्वारका प्रसाद, बंशीधर, इन्दरचंद, प्रहलाद राय, रतनलाल और एक पुत्री अनार देवी हुई, जिनका विवाह मुकुन्दगढ़ के श्री पोकरमल जी से हुआ।

2. मालीराम जी :

मालीराम जी की प्रथम पत्नी फतेहपुर की थी जिसका युवावस्था में देहान्त हो गया। आपका दूसरा विवाह बिमाऊ के बरवाड़िया परिवार में बैजनाथ जी की पुत्री के साथ हुआ। दुर्भाग्य से उसका भी अल्पायु में देहावसान हो गया। उनकी तीसरी पत्नी रतनगढ़ से आई। उनसे उनके चार पुत्र हुए चौथूराम, शंकरलाल, मुन्ना व राजेश। चौथूराम अपना निजी वर्कशॉप आरके इंजीनियरिंग वर्क्स चलाते हैं तथा शंकर लाल जयपुर में मशीनों का काम करते हैं। उन्होंने जयपुर में अपने निजी मकान बना लिए हैं। मुन्ना व राजेश बम्बई में काम करते हैं। चौथुराम के एक पुत्र कमलेश है तथा शंकर लाल के एक पुत्र पंकज है। मुन्ना के एक पुत्री है तथा राजेश के एक पुत्र है। मालीराम जी ने सीमेन्ट फैक्ट्री, सवाईमाधोपुर में नौकरी की। वहां से सेवानिवृत होकर बिसाऊ आगए। आप संगीत के शौकीन थे। आपका बिसाऊ में ही स्वर्गवास

हुआ।

3. कन्हैया लाल जी :

खूयाराम जी का चौथा पुत्र कन्हैया लाल जी का विवाह मुकुन्दगढ़ के गोविन्दराम जी की पुत्री पंचोली देबी के साथ हुआ। वे दूसरे महायुद्ध के समय सेना में भर्ती हो गए। महायुद्ध समाप्त होने पर आप फोजी सेवा छोड़कर आ गए और फिर आपने कई वर्षों तक बम्बई में काम किया। बाद में बम्बई छोड़कर सवाईमाधोपुर आ गए और सीमेन्ट फैक्ट्री में नौकरी करना शुरु कर दिया। वहां से सेवानिवृत्त होकर जयपुर आ गए। एक दशक पूर्व जयपुर में ही उनका देहावसान हो गया। आपके तीन पुत्र हैं: बनवारी लाल, गजानन्द व लाला। (i) बनवारी लाल का विवाह

बगड़ के सीदड़ परिवार में श्री बजरंग लाल जी की पुत्री के साथ हुआ। आपने वर्षों तक सीमेन्ट फैक्ट्री, सवाईमाधोपुर में नौकरी की। फैक्ट्री बन्द हो जाने पर भी आप वहीं पर डटे रहे। सन् 1994 ई. में आप सवाईमाधोपुर छोड़कर जयपुर आ गए। आपके दो पुत्र हैं बबलू व संजय। वर्तमान समय में दोनों भाई दिल्ली में काम कर रहे हैं।

(i) गजानन्द का विवाह निराधनू के श्री नागरमल जी की पुत्री के साथ हुआ। आप जयपुर में बीमा विभाग में सेवारत हैं। आप कई सालों से जयपुर रह रहे हैं और वहीं अपना निजी मकान भी बनवालिया है। आप एक सीधे-सादे स्वभाव वाले व्यवहार कुशल युवक है। समाजोत्थान में धामू परिवार आपसे अनेक अपेक्षाएं रखता है। आपके एक पुत्र है।

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(iii) लाला का विवाह निराथन के श्री नागरमल जी की पुत्री के साथ हुआ। वह

बीमा विभाग (उद्योग) में सेवारत है। वर्तमान में वह चिड़ावा पदस्थापित है। मितभाषी होते हुए भी उन्होंने चिढ़ावा में अपने व्यक्तित्व को उभारा है। उसके एक पुत्र है।

) चन्द्राराम जी:

(ग मोहन राम जी के तृतीय पुत्र चन्द्राराम जी महानसर व्याहे थे। वे सरल स्वभाव के व्यक्ति थे। मेहनत से जो कुछ मिल जाता उसे संतोष के साथ ग्रहण करके जीवन व्यतीत करते थे। वे कुशल कारीगर थे। उनके दो पुत्र हुए माधुराम व गीगाराम।

1. साधुराम जी का विवाह बेलासर में मणीदेवी के साथ हुआ। आप काष्ठकला में निपुण थे। दुबले-पतले होते हुए भी आपका हाथ सधा हुआ था। बाद में आपने डालमिया सीमेन्ट फैक्ट्री, करांची में कारपेन्टर के पद पर कई वर्षों तक काम किया। सन् 1947 ई. में भारत विभाजन पर साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे और करांची पाकिस्तान में चला गया। एतदर्थ उन्हें बिसाऊ लौट आना पड़ा। कुछ समय बाद क्षयरोग से पस्त होने पर उनका स्वर्गवास हो गया। उनके दो पुत्र हुए रामेश्वर लाल व श्री लाल। (क) रामेश्वर लाल का विवाह सूरु के बधाणिया परिवार में श्री लूणाराम की पुत्री के साथ हुआ। आप फर्नीचर बनाने के प्रथम श्रेणी के कुशल कारीगर है। आप काफी वर्षों से जयपुर रह रहे हैं और वहीं उनका निज का मकान है। आप गोविन्द देवजी के परम भक्त हैं। जहां कहीं भी साधु संतों के प्रवचन होते हैं, आप वहीं पहुँच कर उसका श्रवण-लाभ उठाते हैं। जयपुर में आपका एक 'जांगिड़ फर्नीचर हाउस' नाम से संस्थान है। आपके दो पुत्र हैं ओइम् प्रकाश व निरंजन लाल।

(i) ओइम् प्रकाश का विवाह रामगढ़ के मीसण परिवार में श्री गजाधर जी की पुत्री के साथ हुआ। यह टर्नर का काम करता है। उसके एक पुत्र है। वर्तमान में वह अपना निजी वर्कशॉप चला रहा है। (ii) निरंजन लाल का विवाह नवलगढ़ के सलूनिया परिवार में हुआ। वह अपने पिता के साथ काम करता है तथा फर्म का संचालन भी करता है। उसके एक पुत्र है।

(ख) श्रीलाल - साधुराम जी का द्वितीय पुत्र श्रीलाल गांगियासर ब्याहा था। वह अपने बडे भाई के साथ जयपुर ही काम करता था। वह कारपेष्ट्री में दक्ष था किन्तु उसका युवावस्था में ही देहान्त हो गया। उसके एक पुत्र है जो जयपुर में काम करता है।

2. गीगाराम जी :

चन्द्राराम जी के दूसरे पुत्र गीगाराम जी का विवाह बिसाऊ के स्व. कालूरामजी बरवाड़िया की पुत्री के साथ हुआ। आप सीधे सादे स्वभाव के होते हुए भी बड़े साहसी पुरुष थे। आप अनेक आपात विपत्तियों को झेल कर उनमें से निकलना भी जानते थे। यही कारण था कि वे अन्त तक आर्थिक एवं सामाजिक कठिनाइयों को झेलते हुए हारे नहीं और अपने मनोबल को ऊंचा बनाये रखा। आप कारपेन्ट्री का काम करते थे।

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आजादी से पूर्व आपने डालमिया सीमेन्ट फैक्ट्री, करांची में काम किया। वहां से आकर जयपुर-बीकानेर ट्रेडिग कम्पनी, जयपुर में आरामशीन पर काम किया। सवाई माधोपुर में सोमेन्ट फैक्ट्री का काम प्रारम्भ होने पर आपने जयपुर छोड़ दिया और सीमेन्ट फैक्ट्री, सवाईमाधोपुर में नौकरी करने लग गए। ब बाद में उन्होंने धामू परिवार के अन्य भाइयों को भी वहीं बुलवा लिया। उनकी धाकड़ व्यक्तियों में गिनती होती थी। जो काम किसी से न होता वह कार्य थे अपनी दकाल के साथ पूरा करवा देते थे। आप रिटायर होकर बिसाऊ आए और वहीं पर पहले साधारण मरम्मत की दुकान खोली, बाद में रामकुमार जी धामू के नोहरे में आरा मशीन किराये में लेकर चलाई १. सन् 1991 ई. में आपका स्वर्गवास हो गया।

आपके बार पुत्र हुए-वासुदेव, मुरलीधर, राजेन्द्र व भागीरथ। वासुदेव चिड़ावा व्याहा था। विवाह के कुछ साल बाद उसका देहान्त हो गया। उसका स्थान मुरलीधर को दिया गया किन्तु उसका भी शीघ्र ही असमय में देहान्त हो गया। उसके दो पुत्र हुए-विनोद व पप्पू । विनोद चूरु व्याहा है तथा पप्पू इंडलोद व्याहा है। विनोद जयपुर में टर्नर का काम करता है। तथा पप्पू कारपेन्ट्री का काम करता है। उन्होंने अपना नियो मकान भी जयपुर में बनवा लिया है। राजेन्द्र निर्बल मानसिकता के कारण अविवाहित ही रह गया। वह जयपुर में अपनी स्वतंत्र गति मति से जीवन-निर्वाह कर रहा है। भागीरथ एक योग्य लड़का निकला। उसका विवाह नवलगढ़ के दामोदर जी की भतीजी के साथ हुआ। उसने प्रारम्भ में श्री तोलाराम जी के कारखाने में टर्नर का काम सीखा। बाद में उसे खाड़ी देश जाने का अवसर मिल गया। कई साल वहां रह कर उसने अच्छी कमाई की। उसने बिसाऊ के अपने पुराने मकानों की मरम्मत कराई तथा अपने बाड़े में दो कमरे भी बनवाए। सन् 1994 ई. में उसने जयपुर में एक मकान बनवा लिया। उसके एक पुत्र व तीन पुत्रियां हैं। पुत्र पवन कुमार स्कूली शिक्षा प्राप्त कर रहा है।

(घ) घड़सीराम जी :

मोहन रामजी के चतुर्थ पुत्र घड़सी राम जी मिस्त्री प्रतिभा के धनी थे। गौरवर्ण व छरहरा शरीर उनके व्यक्तित्व को आकर्षक बनाते थे। युवावस्था में ही वे बिसाऊ ठिकाने में राजमिस्त्री के पद पर आसीन हो गए और लम्बे अर्से तक अपनी सेवाएं दी। आसपास के क्षेत्रों में उनका नाम प्रसिद्ध था। बिसाऊ ठाकुर विष्णु सिंह के दरबारियों में उनका विशिष्ट स्थान था। बिसाऊ ठिकाना व उनके रिश्तों के ठिकानों में भी उनका अटूट विश्वास था। इसी कारण उन सब ठिकानों के काम उनके माध्यम से ही होते थे। ठाकुर विष्णु सिंह के साथ आपने अनेक दूरस्थ स्थानों की यात्राएं को।

वे लकड़ी, चांदी, सोना व जवाहरात के पारखी विशेषज्ञ थे। अतः तत्सम्बन्धी सारा काम उनकी देखरेख में ही होता था। वे घड़ीसाज थे और तलवार, भाला, बंदूछ आदि की मरम्मत भी करते थे। जाति-बिरादरी में आई समस्याओं को उलझाते-सुलझाते रहते थे। वे अपने राजकीय प्रभाव का इस्तेमाल करके अनेक महत्वपूर्ण निर्णय लागू कर दिया करते थे।

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उस समय उनके घर में सब तरह का ठाठ था। आने वाले अतिथियों का अच्छा सत्कार किया जाता था। वैसे उनपर ठिकान ठकुर-सुहाती में प्रवीण चे करने में थे। इसी कारण उनका पूरा जीवन ठाकुर ठाकुरी-संस्कृति-सागर में ते-सागर में गोताखोरी में ही बीता और अनुभव के मोतियों से अंतमंजूषा को भरा। उन्होंने अपने भाइयों हरिवारों को पालने में भी बड़ा योगदान किया। अपने भाइयों के पुत्रों-पुत्रियों के के परिवा सम्बन्ध तय करने करने से लेकर विवाह संस्कार तक का पूर्ण काम स्वयं का व्ययभार उठा कर वे पूरा मय खेतों करते थे। वे व्यय का पूरा हिसाब बही में लिखते थे। बाद में संभव होता तो व्याज के वसूलते थे। वे हमेशा घर से बाहर राजकीय लिवाब में ही निकला करते थे। ठिकाने की ओर से उनको सौ बीघा बाढ़ मिला था किन्तु अपने भाइयों के को बाढ़ में नपवा लेने से खेत की जमीन में पर्याप्त वृद्धि नहीं हो पाई। यहां दूरदर्शिता से काम न लेने के कारण अतिरिक्त भूमि का लाभ न मिल सका। जिसका परिणाम गृह कलह हुआ। वे भाग्यवान पुरुष थे। उनके अधिकांश जीवन काल में मनुष्य तो क्या उनकी गाय का एक बछड़ा भी नहीं मरा। हां अंतिम दशक में उनकी पत्नी व उनके पुत्र का स्वर्गवास हो गया था। वे अपने जीवन में कभी बीमार नहीं पड़े। सुन्दर व स्वस्थ जीवन ही उनकी महान उपलब्धि थी। उनका स्वर्गवास 96 वर्ष की उम्र में हुआ जो हमारे धामू परिवार में लम्बी आयु पाने का रिकार्ड है। उनका विवाह नीमच में श्रीमती लक्ष्मीदेवी के साथ हुआ किन्तु उनसे कोई संतान नहीं हुई। अतः अपने जेष्ठ भ्राता खूबाराम जी के पुत्र हनुमान जी को गोद ले लिया। लक्ष्मीदेवी ने हनुमान को पूरा मातृ स्नेह दिया। वह बहुत ही सरल व शान्त प्रकृति की महिला थी। पूरा कुटुम्ब उसे होड़ती (छोटी) दादी कहकर पुकारता था। घड़सीराम जी से पांच वर्ष पूर्व ही उसका स्वर्गवास हो गया था।

हनुमान जी : हनुमान जी ने प्रारम्भ में ठिकाना बिसाऊ में नौकरी की। बिसाऊ गढ़ में विद्युत आपूर्ति हेतु इंजिन चलाया करते थे। आप भी लकड़ी का काम, मशीनों की मरम्मत, घड़ी साजी आदि के कारीगर थे। ठिकाना समाप्त हो जाने पर आपने सीमेन्ट फैक्ट्री, सवाईमाधोपुर में नौकरी करली। वहां से रिटायर होने के बाद बिसाऊ में ही रहे। आप बहुत कम बोलने वाले व्यक्ति थे किन्तु अफीम का नशा करते थे। आप अपने आखिरी दिनों में अपने बाड़े में रहने लग गए थे और सामाजिक सरोकारों से दूर हो गए थे। कुछेक वर्ष ऐसी परिस्थितियों में बिता कर सदैव के लिए मुक्त हो गए।

उनका विवाह फतेहपुर के बरवाड़िया परिवार में स्व. इन्द्रचन्द जी की पुत्री गणपति देवी के साथ हुआ। उनकी पत्नी मिलनसार व मृदुभाषी महिला थी। उसके सैकड़ों लोकगीत व भजन कंठस्थ थे। मृत्यु के अंतिम समय में शरीर की अनन्त पीड़ाओं को भोगते हुए भी वह अपूर्व चेतनास्थिति में थी। उसने अपने चारों ओर खड़ी महिलाओं एवं पुरुषों से क्षमा प्रार्थना करते हुए व परम प्रभु का स्मरण करते हुए देह त्याग किया। हनुमान जी के चार पुत्र हुए- बनारसी लाल, बसन्तलाल, बालमुकुन्द व रामजी लाल ।

1. बनारसी लाल जी :

आपका विवाह रामगढ़ के मीसण परिवार में स्व. जवाहर लाल जी की पुत्री उमरी देवी के साथ हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् आपने कुछ महीनों तक शिक्षक के पद पर कार्य किया। किन्तु आपका रूझान मेकेनिकल जॉब की ओर था। अतः आपने बिसाऊ में आरा मशीन व मशीनी मरम्मत हेतु एक छोटा कारखाना भी लगाया किन्तुं सफलता हासिल नहीं हो सकी। अतः आप सीमेन्ट उद्योग, सवाईमाधोपुर में नौकरी करने लगे। एक दशक बाट उक्त नौकरी छोड़कर आपने स्वतंत्र रूप से काम किया। बाद में जे.के. सीमेन्ट फैक्ट्री, नीम्बाहाड़ा में नियुक्त हुए और कई वर्षों तक सफलता पूर्वक कार्य किया। वर्षों के अनुभव से आप मिनी सीमेन्ट प्लांट की मशीनों के विशेषज्ञ बन गए। वर्तमान में आप कहीं नौकरी नहीं करते हैं। स्वतंत्र रूप से सीमेन्ट प्लांट का काम मिलने पर आप अपने निर्देशन में पूर्ण करा देते हैं। भारत के विभिन्न राज्यों में तत्सम्बन्धी कम्पनी मालिक उनसे मिलने आते रहते हैं और अपने साथ ले जाते हैं। आप पत्र-पत्रिकाएं पढ़ते रहते हैं तथा साहित्य के प्रति भी रूचि रखते हैं। आपका जीवन सदैव

मौज मस्ती में बीता है। आपके पांच पुत्र हैं:

1. भगवती प्रसाद झुंझुनू के काला परिवार में व्याहा है। वह प्रारम्भ से ही जयपुर में अपने पिता के मामा के कारखाना में काम करता है। वर्तमान में कारखाने का पूरा प्रबन्ध उनके हाथ में है। आय का स्रोत अच्छा बन जाने से जयपुर में उनका निजी मकान है तथा अनेक प्लाट हैं। ये सब कड़ी मेहनत व लगन के साथ साधनों का सदुपयोग करने के सुपरिणाम है। इनके दो पुत्र हैं- प्रदीप व सुनील ।

2. गोविन्द प्रसाद चूरु व्याहा है। प्रारम्भ में ऐच्छिक जॉब न मिल इधर-उधर घूमना पड़ा। बाद में पिता बनारसी लाल जी की अनु सीमेन्ट, निम्बाहाड़ा में नियुक्त हो गए। तब से सतत वहीं इनके कोई संतान नहीं है। इसलिए अनुज अशोक की छोट पास रखते हैं। 3. सुरेश कुमार रामगढ़ व्याहा है। प्रारम्भ में पाने के कारण पर जे.के. कार्य कर कर रहे हैं। पुत्री को अपने वह इधर-उधर किसी जगह टिक कर काम नहीं कर सका। बाद में ट्रक अच्छी कमाई करने लगा। वर्तमान में उसने अपना निज भटकता ड्राइवर बन का ट्रक है। है और राजस्थान में व्यापारिक केन्द्रों पर माल ले जाता रहा और गया और खरीद लिया अशोक कुमार का विवाह झुंझुनू के बन्दूखिया पुत्री के साथ हुआ। बी.कॉम. उत्तीर्ण करने परिवार में से कार्य किया। बाद में खाड़ी देश चला गया। वहां श्री मदनलाल जी की बाद इसने अनेक जगह अस्थायीरूप कमाई की। फिर सांझे में राजगढ़ (चूरू) में सीमेन्ट पाइप विफल होने पर उसको छोड़ कर बिसार ट्यूब, पंचर चेपा आदि की एजेन्सी कई साल साल रहकर अच्छी का मिनी मिनी प्लांट बलाया। बिसाऊ लौट आया। वर्तमान वर्तमान में उसने टायर ले रखी है और राजस्थान के कई जिलों में सप्लाई करता है। इस व्यवसाय में उसे अच्छी सफलता मिली है। उनके चार पुत्रियों के बाद 1994 ई. में एक पुत्र हुआ है।

5. सतीश मंड़ावा ब्याहा है। वह जयपुर में कारपेन्ट्री का काम करता है। बीच-बीच में 'अपने अग्रज अशोक कुमार के व्यवसाय में भी सहयोग करता रहता है। उसके एक पुत्र है।

2. बसन्त लाल :

आपका विवाह चिड़ावा के सरभुदयाल जी की पुत्री के साथ हुआ। आपने कई वर्षों तक सीमेन्ट फैक्ट्री, सवाईमाधोपुर में नौकरी की। उसको छोड़कर कुछ समय के लिए अनेक स्थानों पर अस्थायीरूप से काम किया। फिर भाई बनारसी लाल ने इन्हें सीमेन्ट फैक्ट्री, निम्वाहाड़ा में फीटर के पद पर नियुक्ति दिलवादी। जनवरी, 1995 ई. में वहां से सेवा निवृत्त होकर बिसाऊ आगए। इनके एक पुत्र है। उसका नाम मनोज है। मनोज ने अपने नोहरे में एक फ्लोवर मिल स्थापित कर ली है। उसके दो पुत्र हैं।

3. बालमुकुन्द :

आपका विवाह चूरु के चोयल परिवार में हुआ। प्रारम्भ में आप लकड़ी का काम करते थे। बाद में लकड़ी के काम का ठेका लेने लगे। वर्तमान में आप उदयपुर (मेवाड़) में बिल्डिग कन्ट्रेक्टर हैं तथा वहीं अपना निजी मकान भी बनालिया है। आपके दो पुत्र हैं : मनोहर लाल व पवन कुमार।

1. मनोहर लाल का विवाह सरदार शहर मीसण परिवार में हुआ। उसने दस जमा दो परीक्षा उत्तीर्ण करके दिल्ली में चांदी का काम सीखा तथा कई वर्षों तक वहां काम किया। वर्तमान में उदयपुर में ही ताम्बे के तार सप्लाई करता है। फर्म का नाम 'सुनित एन्टर प्राइजेज' है।

2. पवन कुमार का विवाह बगड़ निवासी श्री रामजी लाल असलिया की पुत्री के साथ हुआ। वह एक प्रतिभावान छात्र है तथा विज्ञान में पी.एच.डी. कर रहा है। वर्तमान में उसने ताम्बे के तार सप्लाई करने की एजेन्सी ले ली है जिसे दोनों भाई मिल कर चला रहे हैं।

4. रामजीलाल जी :

आपका विवाह रामगढ़ के मातूराम जी की पुत्री के साथ हुआ। आप प्रारम्भ में कारपेन्टरी का काम करते थे। बाद में सीमेन्ट फैक्ट्री में नियुक्त हो गए। एक दशक बाद फैक्ट्री की नौकरी छोड़कर लीबिया चले गए। वहां कई साल तक रह कर अच्छी कमाई की; फिर छोड़कर उदयपुर (मेवाड़) लौट आए। वर्तमान में आप उदयपुर में बिल्डिंग बनाने व बेचने का व्यवसाय कर रहे हैं। आप बड़े मेहनती व लगनशील व्यक्ति हैं। आपके तीन पुत्र हैं : राजेश, प्रमोद व बंटी। राजेश विवाहित है और बैंक में सेवारत है। बंटी पढ़ रहा है। दुख के साथ लिखना पड़ रहा है कि दिसम्बर 94 ई. में आपके द्वितीय पुत्र प्रमोद का अचानक असमय देहान्त हो गया।

जगुजी का वंश

गोधूराम जी के द्वितीय पुत्र जगुराम जी के दो पुत्र हुए। 1. जीवणराम जी. 2. राजू वा ज्ञानाराम जी। हरिद्वार के पंडों की बही में द्वितीय पुत्र के नाम को राजू वा ज्ञानाराम लिखकर संदेह पैदा कर दिया है। कौन सा नाम सही है, पता नहीं चलता। क्योंकि दीने खां की यही में उक्त नाम का कहीं जिक्र नहीं हुआ है। नाम राजू हो या ज्ञानाराम, उस व्यक्ति का वंश आगे नहीं चला। जीवनराम जी के एक पुत्र बीजाराम जी हुए। बींजाराम जी के तीन पुत्र हुए- प्रथम हुणताराम जी, द्वितीय रेखाराम जी तथा तृतीय शिवलाल जी।

1. हुणताराम जी

इनके कोई पुत्र न था। एक लड़की थी जिसका नाम नानगी था। वह चूरु के राजोतिया परिवार में भूदाराम के पुत्र हनुमान जी को विवाही थी। उसका भरापूरा परिवार है। दुणताराम की गवाड़ी में सांवलराम के बड़े भाई पोकरराम को लाकर गोद बैठाया लेकिन कुछ समयोपरान्त वह अपने गांव लौट गया। इस तरह हुणता रामजी का वंश आगे नहीं बढ़ा।

2. रेखाराम जी :

रेखाराम जी के एक पुत्र व तीन पुत्रियां थी। बड़ी पुत्री जमना जो फतेहपुर विवाही थी, विधवा होने पर अपने पिता के घर आ गई और वैधव्य जीवन बिता कर उसने वहीं अपनी ईहलीला समाप्त की। दूसरी पुत्री मनोहरौ रामगढ़ विवाही थी, उसका भी देहान्त हो गया। तीसरी पुत्री दुर्गा महनसर विवाही थी। वह भी विधवा होकर अपने एक पुत्र व एक पुत्री को लेकर बिसाऊ आ गई। वह गुणताराम की गवाड़ी में रहने लगी। सभी धामू भाइयों के सहयोग से उसके दिन कटने लगे। उसने स्वयं मजदूरी करके (पीसना पीसकर) अपने बच्चों का पालन-पोषण किया। लेखक की माताजी की प्रेरणा से ही वह अपना स्वतंत्र पारिवारिक जीवन के लक्ष्य को पास की। वर्तमान में उसका पुत्र डूंगर मल माननीय श्री तोलाराम जी के कारखाने में फीटर के पद पर कार्यरत है। दुर्गा का देहान्त जयपुर में ही हुआ।

रेखाराम जी का पुत्र गौवर्द्धन तीनों बहिनों से छोटा था। उसका व्यक्तित्व आकर्षक था। उसे गाने का बड़ा शौक था। उसका विवाह चूरु के राजोतिया परिवार में खविनी देवी से हुआ। उसके पिता रेखाराम जी रांची में बांदी के आभूषण बनाने का काम करते थे। रांची में उनकी दुकान प्रसिद्ध थी। गौवर्द्धन भी रांची में पिता के साथ काम करता था। रेखाराम जी का स्वर्गवास हो जाने पर वह अपने चचेरे भाई मालीराम जी के साथ रांची में काम करता रहा किन्तु अचानक युवावस्था में ही उसे अकाल काल का पास बनना पड़ा।

उसके मरणोपरान्त परिवार में उसकी पत्नी खींवणी देवी रही। बाद में सांवलराम जी को कांट से गौवर्द्धन के स्थान पर गोद लाया गया। उसके साथ उसकी माताजी भी आई थी। इस प्रकार उक्त परिवार में पुनः रसमय जीवन का संचार हुआ। सांवल राम के दो पुत्र व एक पुत्री हैं- श्यामलाल, रामनिवास व भगवानी देवी। अब उनका परिवार बढ़ा तो व्ययभार भी बढ़ गया था। सांवल राम काम का सामान्य जानकार था। परिणामतः आय से अधिक व्यय का भार उत्तरोत्तर बढ़ता बला गया। यह परिवार आर्थिक संकट से जूझ रहा था। ऐसे समय में लेखक ने सांवलराम जी को तोलाराम जी के कारखाने में नौकरी दिलवाई। उसका परिणाम बहुत फलदायी रहा। सांवलराम जी का स्वर्गवास सितम्बर 95 में हो गया।

( अ) श्यामलाल :

बड़ा पुत्र श्यामलाल अपने पिता के साथ बचपन में ही तोलाराम जी के कारखाने में रहने लगा और खराद मशीन पर काम सीखने लगा। शीघ्र ही वह एक कुशल टर्नर बन गया। उसका विवाह नवलगढ़ हुआ। धीरे-धीरे उसने अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बनाया और स्वतंत्ररूप से काम करने लगा। पिछले दो दशकों से शास्त्री नगर, जयपुर में उसका निजी वर्कशॉप 'श्याम इंजीनियरिंग वर्क्स' नाम से चल रहा है। वह अपनी लगन व परिश्रम से निरन्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर है। उसने नया खेड़ा, जयपुर में अपना निजी मकान भी बना लिया है। उसके तीन पुत्र हैं-गोपाल, विष्णु व छोटू । गोपाल का विवाह नवलगढ़ के लिछमण जी अड़ीचवाल की पौत्री से हुआ। विष्णु व छोटू कारखाने के काम में हाथ बंटाते हुए अध्ययन भी कर रहे हैं।

(ब) रामनिवास :

सांवल राम जी का दूसरा पुत्र रामनिवास बिसाऊ में रहता है और कारपेन्टरी का काम करता है। उसका प्रथम विवाह जयपुर में हुआ। उसकी प्रथम पत्नी का युवावस्था में ही देहान्त हो गया। उससे एक पुत्र शरद (बंटी) है जो 'श्याम इंजीनियरिंग वर्क्स जयपुर में काम करता है। रामनिवास का दूसरा विवाह घोड़ी वारा (झुंझुनू) के रामजीलाल जाला की पुत्री से हुआ। उससे एक पुत्र संजीव (कालू) है जो पढ़ रहा है। 3. शिवलाल जी :

शिवलाल जी चोखाराम जी के वंश में भींवाराम जी के गोद चले गए। अतः इनके परिवार का विवरण चोखारामजी के वंश में दिया गया है। आगे जगुराम जी के बंश की तालिका दी जा रही है:

Dungaram Ji Ka Vansh

गोधूराम जी के तीसरे पुत्र दूगरराम जी के दो पुत्र हुए घासीराम जी व सुखाराम जी। दोनों भाई लोहे के काम के बहुत अच्छे कारीगर थे। उस जमाने में घासीराम जी हिन्दी व अंग्रेजी पढ़ना-लिखना जानते थे। सन् 1857 ई. के स्वतंत्रता संघर्ष के पश्चात् ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन समाप्त हो गया था और ब्रिटेन का सीधा शासन भारत पर हो गया था। उसके बाद भारत में पूर्ण शान्ति स्थापित हो चुकी थी और भारतीय व्यापारी विशेषतः शेखावाटी के श्रेष्ठिजन ब्रिटिश शासन से समझोता करके अपना व्यापार कुशलता से बढ़ा रहे थे। ऐसे वक्त पर लेखक के ये परदादा 1860 ई. के आसपास बम्बई गए जबकि शेखावाटी के नजदीक कोई रेल्वे स्टेशन नहीं था। सर्वप्रथम बम्बई जाने वाले हमारे वंश में यह पहला परिवार था। रामगढ़ शेखावाटी के पौद्दार (रुइया) सेठ बम्बई से विदेशों में अफीम का निर्यात करते थे। घासीराम जी व सुखा राम जी ने सेठ से अफीम की पेटियों की पेंकिंग का ठेका ले लिया और ठेके में काफी लाभ प्राप्त किया। बाद में घासीराम जी व सेठ में मित्रता हो गई थी। इसलिए उनको बराबर काम मिलता रहा और लाभ-अर्जित करते रहे। परिणामतः उन्होंने बम्बई में अपना निज का मकान बनवा लिया और उसमें अपने पूरे परिवार को बिसाऊ से बुलवाकर रहने लगे। घासीराम जी स्वभाव से भोले थे। कई वर्षों बाद यह भोलापन एकदिन गतिमान प्रगति के पथ का अवरोधक बन गया। बड़े-बूढ़ों से सुनते रहे हैं कि घासीराम जी के भोलेपन से हुई गलती के कारण सेठों से मित्रभाव व मेलजोल ही समाप्त हो गया। प्रसंग इस तरह बताया जाता है:

एक बार देश से चल कर व्यावला गायक बम्बई आये और सेठ की हवेली पहुँच गए। व्यावला गाना शुरू हो गया। सेठ के सभी प्रेमीजन नित्य व्यावला सुनने आते थे। घासीराम जी भी नित्य जाया करते थे। व्यावला उठने पर सभी लोग अपनी श्रद्धानुसार भेट चढ़ाते हैं। सेठ-सेठानी ने कपड़े, गहने व नकदी दिए। घासीराम जी ने सेठ से अधिक नकद राशि भेंद में चढ़ा दी। सेठ यह जानकर घासीराम जी से अत्यधिक 44

नाराज हो गया। उसके बाद से उनमें वह मेल-मिलाप नहीं रह सका। परिणाम स्वरूप घासीराम जी का धन्धा चरमरा उठा। किन्तु उन्होंने हार नहीं मानी और अपने कारखाने को चलाते रहे।

दोनों भाइयों के पुत्रों ने बिसाऊ में सर्वप्रथम एक हवेली का निर्माण करवाया। बिसाऊ के जांगिड़ बाह्मणों में यह पहली पोळदार चौकबन्ध हवेली थी। हवेली का चेजा मिति कार्तिक सुदी 13 संवत् 1955 को प्रारम्भ हुआ और संवत् 1956 तक पूर्ण हुआ। एक मिस्त्री को रुपये भेजते रहे और उसीने हवेली का निर्माण कार्य पूरा कराया। लेकिन उन्होंने स्वयं आकर हवेली को नहीं देखा। बुजुगों से सुनते रहे हैं कि हमारी हवेली

1. घासीराम जी का परिवार

छप्पनिए काळ में बनी थी, यह बात उपर्युक्त संवत से सही प्रमाणित होती है। घासीराम जी निःसन्तान थे। उनके छोटे भाई सुखराम जी के तीन पुत्र हुए पेमारामजी रामदयाल जी व कुंभाराम जी। घासीराम जी ने रामदयाल जी को गोद ले लिया। घासीराम जी का स्वर्गवास कब हुआ, इसका उल्लेख उनके पुत्रों की बही में नहीं मिलता है किन्तु वे अपने समय के शिक्षित और प्रभावी व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने अपने पुत्र रामदयाल को बम्बई में अपने साथ ही रखा। वहीं उसको प्रशिक्षण देकर कार्यकुशल बनाया। उन्होंने ही बिसाऊ वाली हवेली का चेजा चलाया था। रामदयाल जी :

रामदयाल जी अपने पिता के साथ बम्बई में काम करते थे। वे लोहे के कुशल कारीगर थे और बम्बई वाले कारखाने के संचालन में नियमित सहयोग करते रहे। घासीराम जी के स्वर्गवास के बाद सारा काम उनके सिर आ पड़ा। उन्होंने अपने भाई कुंभाराम के साथ कारखाने को बराबर सक्रिय बनाये रखा।

उनका पहला विवाह चूरु में दनेवा परिवार में हुआ था। कुछ समय बाद ही उनकी पत्नी का देहावसान हो गया। उनके कोई संतान नहीं हुई। अतः रामदयाल जी का दूसरा विवाह लक्ष्मणगढ़ के प्रसिद्ध आसलिया परिवार में हुआ। उसका नाम सुन्दर था। वह सीधी-सादी व भोले स्वभाव की औरत थी। उनके दो पुत्र हुए डेडराज व मन्ना लाल। डेडराज का जन्म संभवतः मिति भादवा सुदी 11 शनिवार संवत 1962 को हुआ। किन्तु वह संवत् 1974-75 में प्लेग महामारी के कारण काल का प्रास बन गया। दूसरे पुत्र मन्ना लाल का जन्म अनुमानतः संवत् 1964-65 में बम्बई में हुआ। रामदयाल जी का स्वर्गवास बम्बई में संवत् 1975 से पूर्व हो गया था। 1.

एमट्याल जी कुंभाराम जी की बही 2. रामदयाल जी की बही में एक गीगले का जन्म व मिति का विवरण सम्भवतः वह डेडराज के जन्म का ही ब्यौरा है।

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नालाल जी :

मन्ना लाल जी संवत् 1975 की महामारी के बाद बिसाऊ में ही रहने लगे। के पिता का इनके स्वर्गवास फागुन सुदी 9 संवत् 1974 को बम्बई में हुआ तथा उनका द्वादशा मिति चैत बदी 6 सवत् 1975 को बिसाऊ में हुआ। रामदयाल जी का दाह संस्कार करने के बाद मन्नालाल जी बम्बई से बिसाऊ आ गए।

पन्नालाल जी का विवाह मिति बैसाख सुदी 3 संवत् 1981 को परिवार में आशारामजी की पुत्री को चूरु के राजोतिया सुत्री गंगादेवी के साथ हुआ। उनके विवाह के ठीक दो वर्ष बाद में उनकी माताजी का स्वर्गवास संवत् 1983 में हो गया तथा खर्च कार्तिक सुदी 7 संवत् 1983 को हुआ।

वे चांदी के आभूषण एवं बर्तन बनाने के कुशल कारीगर थे। वे शुद्धता व ईमानदारी के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। आज भी उनकी बनाई कलाकृतियों को शुद्ध चांदी के भाव मोल लेने में किसी को अविश्वास नहीं होता। आपने आज से 60 वर्ष पूर्व दरभंगा (बिहार) में अपनी दुकान खोली। उनसे मारवाड़ी सेठों के अलावा दरभंगा महाराज ने भी अनेक कलाकृतियां तैयार करवाई। उनकी बनाई कलाकृतियों में बेल बूटों की चिताई का काम देखने योग्य होता था। आपने अपनी दुकान में तोलाराम जी को अपने पास रखा किन्तु मेकेनिक कार्य में रुचि होने के कारण कुछ समय बाद तोलाराम जी करांची चले गए। उसके बाद उन्होंने तोलाराम जी (जगतपुरा) व शिवनाथ जी के पुत्र नागरमल व सीताराम को दुकान में रखा। कुछ साल रहकर के वापस आ गए। शिव लाल जी का स्वर्गवास होने के बाद उनके पुत्रों (द्वारका प्रसाद व इन्द्रचन्द) को उन्होंने अपने पास रखा। सन् 1957 ई. के आसपास दरभंगा की भरीपूरी दुकान बिना कुछ लिए द्वारका प्रसाद व इन्द्रचन्द को सौंप कर वे बिसाऊ आ गए।

आप बहुत सीधे-सादे स्वभाव के थे तथा बहुत कम बोला करते थे। आप परिश्रमी, लगनशील, मितव्ययी तथा सत्यनिष्ठ व्यक्तित्व के धनी थे। आपका स्वर्गवास दिनों 24.4.82 को हुआ। आपका सद्‌गुणों से भरा जीवन आज भी सबके लिए प्रेरणा का स्रोत बना हुआ है। आपके दो पुत्र व दो पुत्रियां हैं- अमोलकचन्द, सुरेश, बसन्त देवी वी व जयश्री।

बसन्ती का जन्म संवत् 1987 में हुआ। उसका विवाह मिति फागुन सुदी 2 संवत् 2000 में नवलगढ़ के अड़ीचवाल परिवार में श्री चिरंजी लाल के साथ हुआ। उसके एक पुत्र व दो पुत्रियां हैं।

जयश्री का जन्म सन् 1946 ई. में हुआ तथा विवाह मिति चैत बदी 7 संवत 2020 दिनांक 5.3.1964 को झुंझुनू के काला परिवार में ठेकेदार बजरंग लाल जी के सुपुत्र श्री ताराचन्द जी के साथ हुआ। उसके एक पुत्र व दो पुत्रियां हैं।

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1. अमोलक चन्दः

आपका जन्म दिनांक 10 नवम्बर, 1933 ई. को हुआ। आपने 1951 ई. में बागला हाईस्कूल, चूरु से मेट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद 1952 ई. में ठिकाना बिसाऊ की स्कूल में अध्यापक हो गए। सन् 1954 में ठिकाना बिसाऊ के अधिग्रहण होने पर आप राज्य सेवा में आ गए। आपने शिक्षण कार्य करते हुए एमारबीएड. तक को योग्यता प्राप्त की। आपका विवाह मिति माह बदी 5 संवत् 2008 को फतेहपुर के बरवाड़िया परिवार में घनरामजी की पुत्री गिन्नी देवी के साथ हुआ।

आप हिन्दी व राजस्थानी के साहित्यकार हैं। आपके शोध पूर्ण लेख, कहानियां, संस्मरण, रेखाचित्र, निबन्ध, कविताएं आदि राजस्थान की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। आप प्रसिद्ध शोध पत्रिका 'वरदा' के प्रवन्ध सम्पादक हैं। आपके प्रधान सम्पादकत्व में बिसाऊ उच्च माध्यमिक विद्यालय की स्कूल-पत्रिका 'सौरभ' का प्रकाशन हुआ जिसने राजस्थान में द्वितीय स्थान प्राप्त कर पुरस्कार प्राप्त किया। आपको राजस्थानी साहित्य संस्कृति अकादमी, बीकानेर की ओर से संचालित साहित्यिक समारोह पिलानी व चिड़ावा में सम्मानित किया गया। आपको बिसाऊ की श्री तरूण साहित्य परिषद्, श्री रघुवीर कला मन्दिर व धामू परिवार की ओर से साहित्यिक, सांस्कृतिक व सामाजिक सेवाओं के लिए अभिनन्दित व सम्मानित किया गया। आप निम्नलिखित संस्थाओं के पदाधिकारी व सदस्य हैं:

1. केन्द्रीय साहित्य अकादमी, दिल्ली (राजस्थानी परामर्श मण्डल)

2. राजस्थान साहित्य समिति, बिसाऊ

4. श्री तरुण श्री रघुवीर कला मन्दिर, बिसाऊ साहित्य परिषद्, बिसाऊ

5. साहित्य संस्थान, झुंझुनू

6. श्री जांगिड़ समाज विकास समिति, बिसाऊ

1. बिसाऊ दर्शन (1980) हिन्दी

आपके प्रमुख प्रकाशन निम्नलिखित हैं:

2. 3. बिसाऊ दिग्दर्शन (1988) इतिहास

4 . गळचट (1992) निबन्ध संग्रह राजस्थानी

5. राजस्थानी कहानी संग्रह (प्रकाश्य)

आप 30 नवम्बर 1991 ई. को राजकीय सैकण्डरी स्कूल के प्रधानाध्यापक पद पर कार्यरत रहते हुए सेवानिवृत्त हुए |

मंत्री शेखावाटी की आंचलिक कहानियाँ (1982) राजस्थानी

आपके 5 पुत्र व एक पुत्री हैं जयप्रकाश, विनोद कुमार, विमल कुमार, राकेश, सुधेश व उर्मिला।

1. जयप्रकाश :

आपके सबसे बड़े पुत्र जयप्रकाश का जन्म दिनांक 8.3.1958 ई. को हुआ। उसने उच्च प्राथमिक तक की शिक्षा प्राप्त करने के बाद अपने दादाजी तोलाराम जी के कारखाने में टर्नर का काम सोखा। उसका प्रथम विवाह 1977 ई. में झुंझुनू के रोलीवाल परिवार में श्री सत्यनारायण जी की सुपुत्री प्रेन देवी के साथ हुआ किन्तु सन् 1984 ई. में पुत्र-जन्म के बाद उसका असमय में ही देहान्त हो गया। परिवार के लिए वह अपूरणीय क्षति थी। उसका दूसरा विवाह सन् 1985 ई. में झुझुनू के दनेवा परिवार में श्री किदार जी की पुत्री मंजु के साथ हुआ। उससे 4 पुत्रियां हैं। जयप्रकाश तीन चार बार खाड़ी देशों में गया। वर्तमान में उसने अपने लिए अलग से एक छोटा मकान बना लिया है।

2. विनोद कुमार :

अमोलक चन्द का दूसरा पुत्र विनोद कुमार का जन्म दिनांक 3.4.61 को हुआ। उसने मेट्रिक उत्तीर्ण करने के बाद अपने दादाजी तोलाराम जी के कारखाने में टर्नर का काम सीखा। वर्तमान में वह एक कुशल टर्नर है। उसका विवाह मिति आसाढ़ सुदी 9 मंगलवार संवत् 2039 तदनुसार दिनांक 29.6.82 को बगड़ के सौदड परिवार में श्री मनोहर लाल जी की पुत्री सरोज के साथ हुआ। आजकल वह जयपुर में टर्नर के पद पर कार्यरत है। उसके दो पुत्र व एक पुत्री हैं 1. रवि, 2. बाल कृष्ण व पुत्री कविता।

3. विमल कुमार :

तीसरा पुत्र विमल कुमार का जन्म दिनांक 1.7.1963 को हुआ। उसने उच्च प्राथमिक तक शिक्षा पाकर कारपेन्टरी का काम सौखा। उसका विवाह मिति माह सुदी 5 बुधवार संवत् 2039 तदनुसार दिनांक 19.1.1983 को चूरु के जाला परिवार में श्री भगतराम जी की पुत्री इन्दू के साथ हुआ। वर्तमान में वह एक कुशल कारपेन्टर है तथा उसकी बिसाऊ में एक फर्नीचर की दुकान है। उसके दो पुत्र व एक पुत्री हैं 1. मोहन, 2. ओमप्रकाश व पुत्री गरिमा। अप्रेल, 95 में वह खाड़ी देश दुबई चला गया।

4. राकेश कुमार :

चौथा पुत्र राकेश कुमार का जन्म 1965 ई. को हुआ। वह दश जमा दो की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद औरंगाबाद (महाराष्ट्र) चला गया। वहां बिल्डिग कन्ट्रक्टर रहा। वर्तमान में वह खाड़ी देश (दुबई) में काम कर रहा है। उसका विवाह दिनांक 19 जून 1987 को चिराना के श्री सागरमल जी की पुत्री रेणु के साथ हुआ। उसके दो पुत्रियां हैं: 1. रूबी, 2. निकेता ।

5. सुधेश कुमार :

पांचवां पुत्र सुधेश कुमार का जन्म दिनांक 25.10.1969 को हुआ। उसने चमड़िया कॉलेज से सन् 1990 ई. में बी.कॉम. की डिमी प्राप्त करने के बाद कुछ महीनों तक जयपुर में काम किया। आपकल आदर्श विद्या मन्दिर बिसाऊ में अध्यापक के पद पर कार्यरत है। उसका विवाह मिति चैत बदी 7 संवत् 2047 तदनुसार दिनांक 7.3.1991 ई. को गुढ़ा-गौड़जी के सामड़ीवाला परिवार में श्री मोती लाल जी की पुत्री प्रभा देवी के साथ हुआ। उसके एक पुत्र है जिसका नाम दुलीचन्द है।

1. उर्मिला:

पुत्री उर्मिला का जन्म दिनांक अक्टूबर 1974 को हुआ। मेट्रिक कथा में प्रवेश करने के बाद वह गृहकार्य करने लगी। उसका विवाह दिनांक 13 मार्च 1994 ई. को नवलगढ़ के रोलीवाल परिवार में श्री बजरंग लाल जी के सुपुत्र श्री प्रकाश चन्द जी के साथ हुआ।

2. सुरेश कुमार :

श्री अमोलक चन्द का छोटा भाई सुरेश का जन्म सन् 1950 ई. में हुआ। वह बचपन से ही कुशाम बुद्धि था। उसने सन् 1965 ई. में बिसाऊ हाई स्कूल से विज्ञान विषय लेकर इंगलिश मीडियम से प्रथम श्रेणी में मेट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की तथा राजस्थान में मेरिट सूची में उसका सातवां स्थान रहा। उसने सन् 1966 ई. में नवलगढ़ कॉलेज से विज्ञान में पी.यू.सी. परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की तथा राजस्थान की मेरिट सूची में उसका द्वितीय स्थान रहा। सन् 1971 ई. में उसने जोधपुर यूनिवर्सिटी से B.E. (Mech) Honr's की डिमी प्राप्त की। उसने कुल तीन साक्षात्कार दिए हेदराबाद, भाभा इंस्टीट्यूट, बम्बई व हिन्दुस्तान एयरोनेटिक्स लि. बंगलौर और तीनों में ही उसका चयन हो गया था। प्राथमिकता देते हुए उसने हि.ए.लि. बंगलौर में ड्राइंग आफीसर (अधिकारी) के पद पर कार्यभार संभाला। उनको प्रशिक्षण हेतु मद्रास भेजा गया, वहां साथियों के द्वारा रैगिंग करने पर उसके मस्तिष्क पर कुप्रभाव पड़ा और वह दीमागी संतुलन खो बैठा। वह तीन महीने तक उस हालत में मद्रास व बंगलौर के चक्कर काटता रहा। अंत में बिसाऊ आगया तब तक वह पूरी तरह विश्चिक्षप्त हो चुका था। पूज्य तोलाराम जी ने उसका जयपुर में काफी इलाज कराया किन्तु पूर्ण रूप से स्वस्थ न हो सका। परिणामतः उसका दिनांक 13.8.1989 ई. को देहावसान हो गया। परिवार के लिए यह एक बड़ा आघात था।

इनकी माताजी गंगादेवी का 90 वर्ष की आयु में दिनांक 21.5.96 को स्वर्गवास हो गया।

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2. सुखाराम जी का परिवार

डूंगर रामजी के द्वितीय पुत्र सुखाराम जी के तीन पुत्र हुए- 1. पेमाराम जी 2. रामदयाल जी, 3. कुंभाराम जी। पेमाराम जी का युवावस्था में ही देहान्त हो गया। रामदयाल जी पासीरामजी के गोद चले गए। इस प्रकार सुखाराम जी के पास एक पुत्र कुंभाराम जी ही रहे। उन्होंने अपने पुत्र को बहुत वर्षों तक बम्बई में अपने पास ही रखा। वहां वे लोहे के काम में प्रथम श्रेणी के कारीगर बने। सुखाराम जी ने अपने भाई घासीराम जी के साथ बम्बई में रह कर करोबार को भली भांति संभाला व निरन्तर विकास की ओर गतिमान रहें।

सुखाराम जी की पत्नी रामगढ़ (सीकर) की थी जो पं. भोलाराम आर्य की माताजी की मंगी भुवा थी। सुखाराम जी का स्वर्गवास संवत् 1951 में हुआ तथा द्वादशा मिति आसोज सुदी 4 संवत् 1951 को हुआ। कुंभाराम जी की माताजी का स्वर्गवास संवत् 1953 में हुआ तथा खर्च मिति पोह सुदी 10 बुधवार सं. 1953 को हुआ।

कुंभाराम जी :

कुंभाराम जी लकड़ी व लोहे के काम के अद्वितीय कारीगर थे। उनके द्वारा बनाई हुई लकड़ी को पेटियां, लोहे की सदृखें, पिजरे आदि आज भी कई घरों में मौजूद हैं जिन्हें कलाकारी के बेजोड़ नमूनों के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। इन नमूनों कारण ही बुजुर्गों से सुनकर वर्तमान पौड़ी के लोगों में भी उनके काम व कारीगरी

की छाप उनकी यादों में स्थान बनाए हुए हैं।

कुंभाराम जी के तीन विवाह हुए। पहला विवाह अनुमानतः संवत् 1951-52 में हुआ था। उनकी पत्नी थेलासर की थी जो सेहूराम जी की भुवासास लगती थी। तीन चार साल के बाद ही उसका असमय में ही देहान्त हो गया। उनका दूसरा विवाह चूरू के आसलिया परिवार में मिति जेठ बदी 5 संवत् 1955 को हुआ। उसके कोई संतान नहीं हुई और पांच वर्ष बाद ही उसका भी देहान्त हो गया। अनुमानतः संवत् 1961-62 में हुआ उनका तीसरा विवाह महनसर के बरवाड़िया परिवार में हुआ। उनकी तीसरी सरी पत्नी जीवनी देवी की कुक्षि से प्रथम पुत्री तारामणी का जन्म हुआ। कुछ साल बाद दूसरी पुत्री रूकमणी का जन्म हुआ। घर में पुत्र न होने का दुःख बढ़ता ही जा रहा था। कुंभाराम जी ने तंग आकर सरदार शहर से लादूराम धामू को गोद ले आए किन्तु कई वर्ष बाद गोदनामा निरस्त कर लादूराम को वापस सरदार शहर भेज दिया; क्योंकि उसके बाद उनके तीसरी संतान पुत्र-रत्न तोला राम प्राप्त हो गया। पुत्र रुदन से घर में एक नए प्रकाश-पुंज का उदय हुआ। परिवार में खुशियों की बहार आ गई। चारों ओर हर्षोल्लास छा गया मानों उनके जन्म के साथ ही एक नवयुग का प्रारम्भ हो गया हो।

तोलाराम का लालन-पालन बड़े लाड़-प्यार से होने लगा।

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कुंभाराम जी ने अपनी प्रथम पुत्री तारामणी का विवाह मिति जेठ सुदी 10 संवत् 1977 को चूरु के काकटिया परिवार में मालीराम जी के साथ सम्पन्न कराया। अब वे तेजी से वृद्धावस्था की ओर बढ़ रहे थे, साथ ही रुग्ण भी हो चले थे। अतः दूसरी पुत्री रूकमणी के विवाह में भतीजा मन्ना लाल जी ने व्यवस्था करके चूरु लदोया परिवार में केसबराम जी के साथ रुकमणी का पाणिमहण संस्कार मिति जेठ बदी 3 संवत् 1985 को विधि पूर्वक सम्पन्न कराया। कुंभाराम जी धीरे धीरे कमजोर हो रहे थे। वे हुक्का पीते थे। श्वांस का रोग उन्हें चैन नहीं लेने देता था। आखिर में श्वांस के रोग ने उन्हें पूरी तरह दबोच लिया और मिति माह सुदी 1 संवत् 1991 को उनका स्वर्गवास हो गया तथा उनका द्वादशा मिति माह सुदी 13 संवत् 1991 को हुआ। मन्नालाल जी व तोलाराम जी ने उनकी अंत्येष्टि व खर्च का कार्य सम्पन्न कराया तोलाराम जी : तोलाराम जी का जन्म अनुमानतः संवत् 1976 में असाधारण बुद्धि-वैभव व प्रतिभा लेकर आए। आप बचपन साथ आ। आप जन्म के स स्वभाव के नटखट स्व तिमति के साथ और अपने लक्ष्य को पाकर ही चैन की सांस लेते थे। आपने स्वतंत्र गतिम जीने की कला को सीखा तथा तदनुरूप ही जीवन में कुछ कर गुजरने की भावना संजोए कठिन मार्ग को चुना।

हुए मजदूर तबके के बालकों को पढ़नें-पढ़ाने का उस समय अनुकूल वातावरण नहीं था, फिर भी आपने कथा तक पढ़ाई करके हिन्दी व अंग्रेजी भाषा का सामान्य ज्ञान प्राप्त किया। आगे चल कर वहीं ज्ञान उनकी उन्नति का सोपान बना। Learning by doing आपके जीवन का प्रथम सिद्धान्त बना। अनुभव से अर्जित वस्तु (object) ही आपके भावी योजना की कुंजी बनीं। सतत् सीखने की प्रक्रिया में कहीं व्यवधान नहीं आया। परिणामतः आज भी आपकी प्रभा से बहुमुखी ज्ञान-रश्मियां उत्कीर्ण हो रही हैं। आप गांव में ही रह कर कारपेन्ट्री का काम करने लगे। शीघ्र ही लकड़ी के काम के कारीगर हो गए। एक कारीगर को मिलने वाली मजदूरी इन्हें भी मिलने लगी। कुछ समय के लिए आपने चांदी के आभूषण बनाने का भी काम किया। किन्तु मन टिक न पाया। आपका रुझान तो मशीनी दुनियां में विचरण करने का थाः इसलिए इन्हें अवसर की तलाश थी। आपकी अभिरुचि आयुर्वेदिक शोध एवं खोज की ओर भी बढ़ी। आप धुन के पक्के थे; किसी काम में जुट गए तो रात दिन उसी में लगे रहते और तब तक लगे रहते जब तक उसका परिणाम न पा लेते। घर में ही भट्टी बन गई और भस्मादि दवाओं का प्रयोग एवं निर्माण होने लगा। कुछ समय बाद आयुर्वेद के प्रति रुझान समाप्त हो गया और तेजी से बढ़ने वाली एले एलोपेथी के प्रति पकड़ मजबू मजबूत करने के लिए प्रयत्नशील हो गए। बहुत कम समय में ही घर के आलों व ताकों में एलोपेथी दवा की शीशियां अट गई। उनके गले में स्टेथिसकॉप शोभा देने लगा। आसपास के बीमारों को दवा दी जाने लगी। उनके परिणाम भी अनुकूल आने लगे। कठिन अध्यवसाय, लगन व कठोर परिश्रम से काफी दवाओं का ज्ञान प्राप्त किया। उत्साह बढ़ता गया और उनकी खोज पूर्ण दृष्टि ने उनके रुझान को स्थायी कर्म में परिपुष्ट किया। अब तो उनके जीवन का नित्य कर्म है, निःशुल्क सेवा करना और बीमारों को मुफ्त दवा वितरण।

सन् 1940 ई. में आप करायी चले गए और डालमिया सीमेन्ट फैक्ट्री में प्रथमतः कारपेन्टर के पद पर नियुक्त हुए। वहां उनको विभिन्न मशीनों को देखने, संचालित करने व मरम्मत करने का अवसर मिला। आप अपना केडर बदला कर फीटर बन गए। उसके बाद तो आप तेजी से उन्नति करते चले गए। सन् 1947 ई. में स्वतंत्रता के साथ त्रासदायी विभाजन भी प्राप्त हुआ। पाकिस्तान के निर्माण घोषणा के तुरन्त बाद में भारत में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठे। पाकिस्तान से आने बाले शरणार्थी व भारत से जाने वाले मुहाजिरों की भीड़ पर आततायियों के हमले और नरसंहार ने इतिहास के उस काल के पृष्ठों पर काला धच्या पोत दिया। हमारे परिवार के 30-40 सदस्य कराची में फंस गए। उनका वहां से निकलना बड़ा मुश्किल हो गया था। अंत में तोलाराम जी ने सबको हिम्मत दिला कर भारत आने का दृढ़ निश्चय किया। औरतों को बुरके पहनाए गए तथा पुरुषों को मुस्लिम पहनावे में रेलवे स्टेशन पर लेकर पहुँचे। तोलाराम जी उर्दू साहित्य एवं शब्दावलियों से सुपरिचित थे। वहां उन्होंने अपने परम विश्वसनीय मुस्लिम दोस्तों का सहारा भी लिया। रेलवे स्टेशन पर बड़ी अफरा-तफरी मची हुई थी। दंगाई रेल के हर डिब्बे में हिन्दुओं को तलाश रहे थे। ऐसी भयानक परिस्थिति में तोलाराम जी घबराए नहीं तथा सब को एक डिब्बे में आराम से बैठाया। जो भी दंगाई आता उसको अपने बात चातुर्य से प्रसन्न कर देते और किसी को भनक भी नहीं पड़ी कि उस गाड़ी में हिन्दू परिवार भी बैठा है। ईश्वर की कृपा से उनकी यात्रा बिना किसी दुर्घटना के पूर्ण हुई।

चूरु में हमारी भेजी हुई बस तैयार खड़ी थी। सब लोग उसमें बैठ कर सकुशल बिसाऊ पहुँचे। उस दिन परिवार के समस्त सदस्यों ने खुशियां मनाई।

कुछ समय बाद आप गीगाराम जी के साथ जयपुर आ गए। छगनलाल मोदी ने उन्हें आरामशीन पर चिराई हेतु मिस्त्री पद पर नियुक्त किया। तोलाराम जी ने डिजल इंजिन को बदल कर दूसरा 15 H.P. का इंजिन लाकर लगवाया। चिराई का काम तेजी से होने लगा। उन्होंने चार हजार फीट चिराई प्रति दिन करने का जयपुर रिकार्ड कायम किया। सेठ उनसे अत्यधिक प्रभावित हुए और उनकों अनेक सुविधाएं प्रदान की। कुछ सालों बाद आपने बेनीवाल के कारखाने को भी संभाला। आपके मन में अपना निजी कारखाना स्थापित करने की प्रबल इच्छा थी। शीघ्र ही वह समय आया और आपकी साधना पूर्ण हुई। अजमेरी गेट के पास एक कारखाना शुरु किया जिसका नाम 'लबोरियस मेकेनिक्स' रखा। कई वर्षों तक दिन रात कठोर परिश्रम करने के परिणाम स्वरुप आज उनके पांच कारखाने चल रहे हैं:

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1. लेबोरियस मेकेनिक्स

2. इंडियन आयरन मेन

4. राजस्थान हीट ट्रीटमेन्ट

3. इलेक्ट्रीकल एण्ड मेकेनिकल सेन्टर

5. इंडियन इंजीनियरिंग वर्क्स

अर्जुन के लक्ष्य बेध की तरह एक ही लक्ष्य संधान पर आपकी दृष्टि टिकी रही और अभूतपूर्व सफलता प्राप्त की। उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। इसलिए अन्य विषयों पर चितन का समय ही नहीं था। ऐसी लगन ही फलदायी सिद्ध होती है। कुछ मशीनें जो विदेशों से आयात की जाती थी, उन्हें अपने कारखाने में बहुत कम मूल्य में तैयार करके दी जिसकी चारों ओर प्रशंसा तो की गई लेकिन सरकार की आंखें नहीं खुली। ऐसी गौरवमय उपलब्धि पर राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित करना सरकार का कर्तव्य ही नहीं दायित्व भी होता है। विदेशों में ऐसी उपलब्धि धारक का नाम विश्वाकाश में नक्षत्र की तरह घूर्णित होता रहता है। उन्होंने दो मशीनें बनाने पर विशेष ख्याति अर्जित की जो निम्न लिखित हैं-

1. क्लॉज सर्किट ड्राई माइंडिग मशीन 2. कन्टीन्यूअस कास्टिंग व रोलिंग मील।

जयपुर में कुछ पत्र-पत्रिकाओं के संवाददाताओं का ध्यान उनकी ओर अवश्य आकृष्ट हुआ तथा साक्षात्कार भी लिए। कुछ वर्षों पूर्व 'इतवारी पत्रिका में उनका व्यंग्य चित्र व साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था। दिनांक 1-9-86 को राजस्थान पत्रिका में उनके जीवन संघर्ष का विवरण 'जुगाड़ का मास्टरः तुलाराम' शीर्षक से प्रकाशित हुआ। जानकारी के लिए उस लेख की प्रतिलिपि यहां दी जा रही है:

जुगाड़ का मास्टर : तुलाराम

"उम्र 64 साल, दोनों ही आंखों में मोतिया बिन्द का प्रकोप व जवान बेटे के एक्सीडेन्ट में अकाल मृत्यु पर भी काम जारी है। पांच कारखाने चलते हैं। लगभग 60-70 कारीगर काम पर हैं। चालीस पचास हजार की तनख्वाह बंटती है। यह कोई खानदानी उघोगपति के कारखाने नहीं बल्कि एक खाती का हिस्सा है जिसने अपने गांव बिसाऊ में लगभग 50 साल पहले कमाई शुरु की चार आना रोज के हिसाब से। तोलाराम ने असली काम सीखा कराची में शेखावाटी के सेठ डालमिया की सीमेन्ट फैक्टरी में। सन् 1940 ई. में चुरु से जोधपुर, जोधपुर से हैदराबाद फिर हैदराबाद से कराची दो रूपये का रेल टिकिट लेकर पहुंचे थे। कराची मे शेखावाटी के ही सेठ डालमिया की मिल में बढ़ई के काम पर लग गए। पगार थी एक रुपया बारह आनa (आज के एक रुपया पचेहत्तर पैसा) लगभग। तीन साल बाद फैक्टरी का काम करने का मौका दिया। यह तुलाराम का मशीनों से पहला परिचय था। मेनजेमेन्ट शोप में फैक्टरी की ब्रेक डाउन हुई, मशीनें ठीक होने आती थी डेविस ने मशीनों की ड्राइंग पढ़ना खराद, ड्रिलिंग मशीन कटिंग मशीन, प्लोनर आदि पर काम करना सिखाया। पाचं साल डेविस ने खूब काम करने का मौका दिया, खूब ऑवर टाइम दी। इजाजत दी तथा छुट्टियों में भी काम करने की मनाही नहीं थी। पैसे भी अच्छे मिलने लगे। ऑवर टाइम मिल कर करीब पौने तीन सौ रु. मिल जाते थे। पर 1947 ई. में देश के विभाजन पर वापस बिसाऊ लौटना पड़ा।

इरादा था गांव में तीन-चार महीने आराम करेंगे पर 15-20 दिन बाद ही गांव के सेठ परसादी लाल ने कहा कि उसने जयपुर में एक आरा मशीन खरीदी है। उसको फौटिंग करवादें। कभी जयपुर देखा नहीं था। अतः जयपुर देखने के लोभ से मशीन लगाने जयपुर आ गए। पर जयपुर आने पर मालूम पड़ा कि परसाटी लाल के भाई बंधुओं ने तो वह मशीन बेच दीः क्योंकि कोई मिस्त्री नहीं मिला ठीक से फिट करने वाला। मशीन के नये खरीददार जयपुर बीकानेर ट्रेडिंग कंपनी' वाले छगनलाल मोदी ने भी तुलाराम की खबर मालूम पड़ने पर बुलवालिया मशीन फिट करवाने के लिए। उस जमाने में जयपुर में बिजली बहुत कम थी। अतः अधिकतर मशीनें डिजल के इंजिन से चलती थी। आरा मशीन अब तक इसलिए नहीं चलों थी कि उसके साथ जो इंजिन दिया गया था, वह 8-7 होर्स पावर का था जबकि बाहिए था 15 होर्स पावर का। नया इंजिन तेरह हजार में खरीदा गया तथा आरा मशीन में काम आरभ्म किया। सेठ छगन लाल प्रभावित हुआ व तुलाराम को रहने की जगह दी तथा अपने यहां काम पर रख लिया। पूरी जिम्मेदारी थी। मन लगा कर काम किया। चार हजार फीट तक एक रोज में चिराई कर दी जो संभवतः आज भी जयपुर में रिकार्ड होगा। सेठ इतना खुश हुआ कि तनख्वाह दुगुनी कर दी, कपड़े, बोनस आदि सब देने लगा। विश्वास इतना जम गया था मेहनत से कि मालिकों में एक बार बंटवारे की नौबत आ गई तो सेठ छगन लाल ने कहा कि आरा मशीन व कारखाना दे दूंगा पर मिस्त्री तुलाराम को अपने पास रखूंगा। दूसरी पार्टी नहीं मानी और बंटवारा टल गया।

छगनलाल मोदी के कारखाने में चौधरी बेनीवाल का ट्रांसपोर्ट का अच्छा धंधा था, उस जमाने में भी चालीस ट्रक लकड़ी की चिराई आदि कराने आता था। तुलाराम की लगन से प्रभावित होकर उसे अपने यहां ले जाने की पेशकस की, जहां उनके ट्रकों की मरम्मत होती थी। सेठ छगन लाल तुलाराम को इस शर्त पर छोड़ने को तैयार हुआ कि तुलाराम का रहन-सहन सेठ के यंहा ही बरकरार रहेगा और सेठ के काम की नैतिक जिम्मेवारी तुलाराम वहन करेगा। बेनिवाल के यहां तुलाराम ने दो साल तक काम किया फिर एक पंजाबी रमेश जी के जो तुलाराम के पास अपनी आरा मशीन की मरम्मत व राय के लिए आया करते थे, तुलाराम को खुद का काम करने का मौका दिया। रमेश जी के पास 5 हार्स पावर का बिजली का कनेक्शन था तथा जगह थी। तीन हजार की जमा पूंजी लगा कर तुलाराम ने कारखाना शुरु किया। एक सत्तरह सौ रुपये में खराद मशीन ली व तीन चार आदमी रखें। कारखाने का नाम रखा सेठ छगन लाल के बेटे की राय से 'लेवोरियस मेकेनिक्स' शागिदों के जयपुर में तीस-पैतीस कारखाने और होंगे। तीस साल में तुलाराम ने कई मशीनें बनाई। कई तो ऐसी जो विदेशों से आज भी आयात होती हैं। विशेषकर 1970 ई. में बम्बई के गुजराती सेठ लल्लू भाई के लिए चालीस टन एलमोनियम प्रतिदिन काम में लेने वाली 'कंटीन्यूअस कास्टिंग व रोलिंग मिल' हैं। यह मशीन दुबारा जमशेदपुर आई-इनकैव के मुख्यालय लंदन से सलाह आई थी कि कम्पनी व्यर्थ ही अपना समय बरबाद न करें। भारत में यह मशीन नहीं बन सकती। चेकोस्लोवाकिया से आयात करने पर तुलाराम ने जब मशीन बना दी तो लंदन से कंपनी के डायरेक्टर देखने आये व चलती मशीन की रील खींच कर ले गए। चालीस लाख आयातित मशीन के दाम हैं। तुलाराम ने छ लाख लिए। इसी प्रकार अहमदाबाद के पास गोदरा में कोठारी के लिए 'ड्राई पाइडिंग मिल' बनाई है केवल दो लाख में जिसे कलकत्ता को बड़ी कम्पनी में 15 लाख में बेचती है। इसी प्रकार फुलेरा के आनन्दी लाल ठेकेदार के लिए पचास टन प्रतिदिन की क्षमता का 'मिनी सीमेन्ट प्लांट'बनाया है जो आज भी बढ़िया चल रहा है। लागत आई थी 10 लाख रुपये पर तुलाराम के अनुसार दुःख की बात यह है कि आराएफ.सी. व अन्य सरकारी दफ्तरों में उसने कभी तालुकात नहीं बनाए। अतः हालांकि उनके पास अनेक ग्राहक आते हैं मिनी सीमेन्ट प्लान्ट बनाने के लिए परन्तु उन्हें तुलाराम को प्लांट खरीदेने के लिए ऋण नहीं मिलता। वैसे अन्यों द्वारा निर्मित मिनी सीमेन्ट प्लांट की कीमत 70 लाख है जबकि तुलाराम द्वारा निर्मित संयंत्र की 15 लाख ।

तुलाराम आज 64 वर्ष की आयु में भी चुस्त हैं। शारीरिक व मानसिक दोनों रुप से देश के हालात व नीतियों के पूर्णतया कटु आलोचक। उनके अनुसार हम इंजीनियर तो बहुत रहे हैं पर करीगरों का अभाव है। नये कारीगर हाथ से काम करने वाले लगन वाले अब उठते जा रहे है। अब वह दिन दूर नहीं देश में कारीगरों का अकाल हो जाएगा। तुलाराम गर्व से कहते हैं कि मैंने जिंदगी में कोई कर्ज नहीं लिया, हालांकि कई बार बैंक वाले स्वयं सुझाव लेकर आये- तोलाराम जी के

जीवन को नजदीकी से देखने पर उनकी विशेषताएं स्पष्टतः दिखाई देती हैं जो एक सामान्य व्यक्ति में कम देखने को मिलती हैं। इन्हीं विशिष्टताओं के बल पर उनके प्रभावी व्यक्तित्व का निर्माण हुआ:

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आज लगभग 30 साल बाद पांच कारखाने हो गए तथा तुलाराम के सिखाए

1. वे तोलाराम से तोलाराम जी मिस्त्री बने अपने सतत् कठोर परिश्रम एवं अधाक्य लगन से । कर्म और बस कर्म ही उनकी जीवन-चर्या का एक मात्र ध्येय। बड़ी मुश्किल से पैदा होता है कर्मयोगी।

2. आप सही समय पर सही काम सही मूल्य पर देने के पक्षधर हैं।

3. आपने कारखाने की अन्य व्यवस्था तथा हिसाब किताब के जंजाल से परे रहते हुए संभागियों में पूर्ण विश्वास के साथ दायित्व निर्वहन की क्षमता उत्पन्न को । आपने अपने भाई-बहुओं को कारखाने में रखा और खुले मन से उद्यम-मन्दिर 4.

का तकनीकी प्रसाद बांटा। उनको उनके कारखाने का विस्तृत क्षेत्र मिला, अधिगम सामग्री मिली और हार्दिक सहयोग। वे प्रशिक्षित भी हुए और सक्षम भी। फलतः वे येन केन प्रकारेण अपने लक्ष्य-श्रृंग-आरोहण पर सफलता प्राप्त कर स्वतंत्र पताका गाड़ सके। ऐसे व्यक्तियों में प्रमुखतः सर्वश्री सांवर मल शर्मा, नौरंग लाल, रामकुमार धामू, दुर्गालाल धामू, श्यामसुन्दर धामू, सत्यनारायण धामू, नत्थू जी राजोतिया, भगवान जी सरदार शहर आदि हैं।

5. सादा जीवन उच्च विचार आपके जीवन में खरा उतरा है। साधारण पहनावा व सामान्य भोजन आपकी दिनचर्या के अभिन्न अंग बन गए। कोई बड़ा आदमी (उद्योगपति) उनसे प्रथम बार मिलने आता है तो उनकी कल्पना में आधुनिक साजसज्जायुक्त कार्यालय की प्रधान कुर्सी पर बैठे हुए शानो-शौकत वाले तोलाराम जी होते हैं; किन्तु मटमैली खाकी पैन्ट शर्ट में 5.3" का एक अदना-सा व्यक्ति देख कर उनकी गगनचुंबी कल्पना यथार्थ की धरती पर गिर कर चूर-चूर हो जाती हैं और साश्चर्य उनके नैत्र पलक झपकना भूल जाते हैं।

6. आप बात करने में चतुर हैं और तार्किक पक्ष को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करने में माहिर हैं। लक्षणा व व्यंजना शक्तियों का प्रयोग आपकी अभिव्यक्ति को सहज ही दिलचस्प बना देती है।

7. आपके घर या कार्यालय में बड़े बड़े डाक्टर, इंजीनियर, उद्योगपति आदि लोगों की वार्ताएं चलती रहती हैं, उस समय उतनी ही समता व स्वतंत्रता के साथ सामान्य कर्मचारी या अन्य व्यक्ति भी खुल कर भाग ले सकता है।

8. आप रसायन शास्त्र के अच्छे ज्ञाता है। 9. आपका बाह्यांतर कलेवर इस्पाती है किन्तु भीतरी भाग का एक कोना मोम-सा मुलायम भी हैं।

11. आप वर्तमान समाज की विसंगतियों के कटु आलोचक हैं। भारत के हर दो हाथ को काम चाहिए, किन्तु सबकों काम दिया नहीं जा सका है। यदि कोई देना चाहे तो दो हाथ करने को तैयार नहीं है। सब को कुर्सी की अपेक्षा है। शिक्षा कुर्सी के उम्मीदवार बनाती है। वर्तमान शिक्षा प्रणाली का घोर विरोध करते हुए बताते हैं कि बालक को पुस्तकीय ज्ञान देने की समयावधि कम व रूच्यानुकूल तकनीकी शिक्षा पर अधिक बल व समय दिया जाना चाहिए और प्रतिभावान बालक को समस्त सुविधाएं देकर आगे बढ़ने का सुअवसर दिया जाना चाहिए।

12. आप खुले मन से नव उद्यमी व्यवसायियों व इंजीनियरों को अपना मार्ग दर्शन देते रहते हैं। सबके लिए उनके दरवाजे सदैव खुले रहते हैं। एतदर्थ प्रतिदिन ज्ञानपिपासु अपनी पिपासा शान्त करके लौटते हैं।

13. आप हिन्दी, उर्दू, राजस्थानी तथा अंग्रेजी साहित्य के प्रति रुचि रखते हैं। अनेक विषयों का आप अध्ययन करते रहते हैं।

14. जांगिड़ इंडस्ट्रीज एसोसियेशन, जयपुर के प्रथम वार्षिकोत्सव पर दिनांक 18.11.89 को आपका अभिनन्दन किया गया तथा आपके तकनीकी अनुभवों से लाभ प्राप्त करने का प्रेरणा ली।

आपका विवाह मिति बैसाख शुक्ला 3 संवत् 1993 (1936 ई) को चूरु के राजोतिया परिवार में बद्री प्रसाद जी की पुत्री ऋद्रि देवी के साथ हुआ। आपके दो पुत्र व चार पुत्रियां हुई। बड़े पुत्र का नाम योगेश व छोटे पुत्र का नाम अशोक है। चार पुत्रियों में प्रथम पुत्री उषा का विवाह चिड़ावा के सामड़ीवाल परिवार में श्री मातूराम जी के पुत्र राजेन्द्र कुमार से हुआ। द्वितीय पुत्री शकुन्तला का विवाह झुंझुनूं के दनेवा परिवार में श्री पूर्णमल जी के पुत्र श्री गौरीशंकर से हुआ। तृतीय पुत्री मुन्नी का विवाह झुंझुनूं के सीदड़ परिवार में श्री दयानन्द जी बगड़िया के पुत्र श्री सुन्दरमल के साथ हुआ तथा चतुर्थ पुत्री संतोष का विवाह भी उक्त परिवार में श्री राधेश्याम जी के पुत्र रतनलाल के साथ हुआ।

1. योगेश :

योगश ने जयपुर की सेंट जेवियर स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। 18 वर्ष की अवस्था में ही पिता के निर्देशानुसार उनके कार्य में हाथ बंटाने लगे। वे एक प्रतिभावान युवक थे। अतः उन्होंने शीघ्र ही एक कारखाना संभाल लिया। वे धीर धीरे अपनी स्वतंत्र गतिमति के अनुसार निर्णय लेकर बड़े-बड़े नए जॉब लेकर पूर्ण करते तथा उन्होंने अपने पिता के नाम को चार चांद लगाए। बचपन में उनके लाड़ प्यार का नाम कीकु था जो वास्तव में उनके अपने परिवार के लिए कीर्तिकुंभ (कीकु) ही थे।

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10. आपको राजस्थान के उद्यमी-समाज का लौह पुरुष कहें तो अतिशयोक्ति न होगी।

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उनका विवाह सिनवाली (लक्ष्मणगढ़-सीकर) के स्व. मोहन लाल जी की पुत्री दुगदिवी के साथ हुआ। विवाहोपरान्त उनकी कार्यशैली में परिवर्तन आया और उन्होंने व्यवसाय को तेजी से फैलाया। सफलताएँ उनके पैर चूमने लगी किन्तु विधाता को यह सब मंजूर नहीं था। अचानक एक दुर्घटना में उनकी युवावस्था में ही अकाल व असमय मृत्यु हो गई। वे अपने पीछे अपनी पत्नी, दो पुत्र व एक पुत्री को विलखते छोड़ गए। भी

वर्तमान में उनका बड़ा पुत्र नारायण अध्ययन के साथ साथ एक कारखाने को देख रहा है। छोटा पुत्र परमेश्वर व पुत्री कृष्णा पढ़ रहे हैं।

2. अशोक कुमार:

आप तोलाराम जी के छोटे सुपुत्र हैं। आपका जन्म जयपुर में हुआ। आपने भी सेंट जेवियर स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। स्कूली शिक्षा पूर्ण करने के बाद आप पिता के व्यवसाय में ययोचित योग्यतानुसार सहयोग करने लगे। इसके साथ सीथ ही आपने मीलिग मशीन की कार्य-प्रणाली को भी सीखा। अपने बड़े भाई के असामयिक निधन से उनको घारी आपात लगा तथा साथ ही कारखाने का पूर्ण कार्यभार भी उन पर आ पड़ा। ऐसी कठिन परिस्थितियों से गुजरते हुए आपने धैर्य एवं दृढ़ निश्चय का परिचय दिया। आपने कारखाने का संचालन एवं प्रबन्ध लगन व कर्मठता के साथ संभाला तथा अपने पिता के निर्देशानुसार अविरत कार्य-निष्पादन करते रहे। वर्तमान में आप अपनी स्वतंत्रता के साथ कारखाने का संचालन कर रहे हैं।

आपका विवाह चिड़ावा (झुंझुनूं) के मूल निवासी वर्तमान में दिल्ली में कार्यरत श्री सूरजमल जी के पुत्र श्री नथूराम जी की सुपुत्री किरण देवी के साथ सम्पन्न हुआ। आपके एक पुत्र व एक पुत्री है। पुत्र श्री कुंज बिहारी स्कूली शिक्षा महण कर रहा है।

आप बड़े सरल व सौम्य स्वभाव के हैं तथा व्यवहार कुशलता में दक्ष होने के कारण सबका सहज ही मन मोह लेते हैं। वैसे आप मित भाषी हैं और सुलझे विचारों के हैं। आपकी उदारता एवं सहृदयता से सभी प्रभावित होते हैं। आप सामाजिक एवं शैक्षणिक गतिविधियों में बराबर रुचि लेते हैं। अपने व्यवसाय में व्यस्त रहते हुए भी आप पत्र-पत्रिकाएं पढ़ते रहते हैं। आप 'जांगिड़ इंडस्ट्रीज एसोसियसन जयपुर के सम्मान्य सदस्य हैं। आप 'तरुण विश्वकर्मा' पत्र के आजीवन सदस्य हैं। आप समाज हितार्थ यथावसर आर्थिक सहयोग भी प्रदान करते रहते हैं।

आपके व आपके पिता द्वारा किए गए समाज कल्याणकारी कार्यों का संक्षेप में विवरण दिया जा रहा है

3. विश्वकर्मा मन्दिर, चूरु की दूसरी मंजिल पर अनेक कमरों का निर्माण। 4. अनेक संस्थाओं को आर्थिक योगदान।

तोलाराम जी की पत्नी श्रीमती ऋद्धि देवी एक कुशल गृहणी, सेवाभावी पत्नी, उदारमना व स्वाभिमानी महिला थी। उसमें पौराणिक संस्कार कूट कूट कर भरे थे। वह नित्य प्रातः काल स्नानादि करके पूजा-पाठ पाठ करती, मन्दिर में भगवान का दर्शन करतीः तत्पश्चात् गृहकार्य में लगती। उसने अपने जीवन में सब तरह के व्रत-उपासना आदि श्रद्धा के साथ पूर्ण किए। धार्मिक प्रवृत्ति में सदैव संलग्न रहते हुए उसने समय-समय पर विभिन्न देव स्थानों व संस्थाओं को मुक्त हस्त से दान दिया। उनके बड़े पुत्र योगेश के असमय निधन से उनको गहरा आघात लगा। परिणामतः वे घातक बीमारी से पस्त हो गई और दिनांक 17.2.1993

को उन्होंने अचानक शरीर छोड़ दिया। श्री तोलाराम जी ने और सब कुछ किया किन्तु पारिवारिक, सामाजिक तथा धार्मिक क्रिया कलापों से सदैव दूर ही रहे। उनकी पत्नी मी ने ने उनके उन अधूरे कायों को सक्रियता के साथ सम्पन्न करके उनके व्यक्तित्व को संपूर्णता दी। इस संदर्भ में उनकी पत्नी का महत्वपूर्ण सहयोग (योगदान) जीवन साथी के रुप में विशेष प्रशंसनीय है। तोलाराम जी ने जहां आवश्यक समझा वहां आपने अपनी पत्नी की सदप्रेरणा से समाज को आर्थिक सहयोग भी दिया है। आपने जांगिड़ विद्यापीठ, सीकर (राज) का सभापति पद स्वीकार किया तथा युवकों को व्यावसायिक शिक्षा के अन्तर्गत प्रशिक्षण हेतु मशीनों को क्रय करने में आर्थिक सहायता प्रदान की। चूरु में जागिड़ गेस्ट हाउस के निचले बड़े हॉल को अपनी माताजी जीवनी देवी की स्मृति में निर्मित कराया। जयपुर में जांगिड़ अतिथि भवन में एक कमरे को बनवा कर प्रदान किया।

आपकों दिनांक 14 नवम्बर, 96 को श्री चन्द्रसागर दिगम्बर जैन पुस्तकालय, बिसाऊ के सभागार में "श्री दुलीचन्द्र सरावगी प्रज्ञा पुरस्कार प्रदान किया गया।

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1. जयपुर में जांगिड़ अतिथि भवन में एक कमरे का निर्माण 2. चूरु में जागिड़ अतिथि भवन में एक बड़े हॉल का निर्माण

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बिसाऊ के धामू वंश से सम्बद्ध एक और धामू परिवार

बिसाऊ के धामु परिवार के पूर्वज बीराणिया से आये कितु स्व.जन्द लाल धामू का एक परिवार ऐसा है जो सीधे हमारी वंशावली से जुड़ा हुआ नहीं है। बुजुर्गों से सुना गया कि उक्त परिवार मूलतः बीराणिया से ही निकला है किन्तु उनके पूर्वज सधीनसर (झुंझुनू) बस गए। चोखा राम जो का द्वितीय पुत्र दुल्हाराम जी का पौत्र बुधराम का युवावस्था में देहान्त हो जाने पर सथीनसर से इन्हीं के परिवार की एक शाखा से एक पुत्र गोद लाया गया। उसका नाम भी बुधराम ही रखा गया। उसी परिवार के एक भाई नन्दलाल जी युवावस्था में ही रोजगार की तलाश में हिसार (हरियाणा) चले गए। कई वर्षों तक वे वहीं रहे। उनका विवाह बालसमद में हुआ।

विवाहोपरान्त वे हरियाणा के अनेक क्षेत्रों में काम करते रहे फिर घूमते-घामते अंत मे बिसाऊ आ गए। हमारे परिवार ने उनको अस्थायी रूप से हुणताराम जी की गवाड़ी रहने के लिए दे दी। नन्द लाल जी अपने परिवार के साथ रहने लगे और मजदूरी भी मिलने लगी। धीरे-धीरे उनकी आय में क्रमशः वृद्धि हुई। बाद में उन्होंने दयालाराम जी के बाड़े के उत्तर में स्थित जमीन खरीद ली और वहां अपना मकान बना कर रहने लगे।

नन्द लाल जी सीधे-सादे व्यक्ति थे। वे किसी प्रपंच में नहीं रहते थे। वे घर में गाय या भैंस रखते थे। ये हुक्का पीते थे। वे नित्य मजदूरी करके शाम को घर लौट आते और घर पर ही बैठ कर कृषकों की आवश्यक वस्तुओं की मरम्मत करते रहते । उनका देहान्त आज से 45 वर्ष पूर्व ही हो गया था। उनकी पत्नी का देहान्त 1982 ई. में हुआ। उनके तीन पुत्र हुए। 1. गोकुल चन्द 2. रामकुमार 3. बजरंग लाल ।

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1. गोकुल चन्द जी

नन्द लाल जी के सबसे बड़े पुत्र गोकुल चन्द रामगढ़ के मीसण परिवार में विवाहे थे। वे लकड़ी, पीतल, चांदी आदि के काम के कुशल कारीगर थे। बाद में वे मशीनों की मरम्मत करने वाले मिली बन गए और पावर हाऊस, बीकानेर में नौकरी करने लगे। वे अपने क्षेत्र में प्रसिद्ध हुए और अपनी धाक जमाये रखी। उन्होंने अपनी लगन एवं मेहनत से बीकानेर में अपना स्वतंत्र कारखाना स्थापित किया। किन्तु उनका देहावसान हो गया। एक वर्ष बाद ही उनकी पत्नी का देहावसान हो गया। उनके तीन पुत्र हुए- 1. देवी लाल 2. निरंजन साल 3. रामजी लाल ।

1. देवी लाल:

देवी लाल सरदार शहर विवाहे। उन्होंने कई वर्षों तक जयपुर में श्री तोलाराम जी के कारखाने में टर्नर का काम किया, उसके बाद वे अपने पिता के पास बीकानेर चले गए और वहीं कारखाने में काम करने लगे। वर्तमान में वे अपना स्वतंत्र कारखाना चला रहे हैं। आपके एक पुत्र वियज कुमार व चार पुत्रियां हैं। विजय कुमार का विवाह नोखामंड़ी के तिराणिया परिवार में श्री भैराराम जी पुत्र श्री छगन लाल जी की पुत्री मंजू से हुआ। विजय कुमार के एक पुत्री है। देवी लाल जी के कारखाने का नाम है 'न्यू विश्वकर्मा मेकनिकल वर्क्स, राणीसर बास, बीकानेर। 2. निरंजन लाल:

आप गांगियासर के बछाणिया परिवार में श्री त्रिलोक जी की पुत्री को व्याहे।

आपकी पत्नी का नाम बसंती देवी है। आपने कठिन परिश्रम करके कारखाने को जमाया और ख्याति अर्जित की किन्तु दुखः के साथ लिखना पड़ता है कि उनका युवावस्था में ही देहावसान हो गया। उनके तीन पुत्र व दो पुत्रियां हैं। पुत्रों के नाम हैं:- 1. विनोद कुमार 2. शिव प्रसाद 3. मुकेश कुमार। विनोद कुमार का विवाह झुझुनू के बंदृखिया परिवार में श्री हरिराम जी की पुत्री संतोष के साथ हुआ। उनके एक पुत्र व एक पुत्री है। शिव प्रसाद का विवाह सौरियासर के श्री ज्वाला प्रसाद जी की पुत्री वंदना के साथ हुआ। 3. रामजी लाल :

रामजी लाल का विवाह फतेहपुर के बरवाड़िया परिवार में श्री रामकुमार जी की पुत्री गायत्री देवी के साथ हुआ। इनके दो पुत्र व दो पुत्रियां हैं। पुत्रों के नाम है। 1. शेखर 2. विशाल। आप एक कुशल कारीगर हैं और अपना स्वतंत्र वर्कशॉप चलाते हैं। आप बीकानेर में राजा भाई साहब के नाम से प्रसिद्ध हैं। आपकी फर्म का नाम है लेबोरियस मेकेनिक्स, राणी बाजार, बीकानेर। आपने उक्त वर्कशॉप जयपुर में श्री तोलाराम जी मिस्त्री के प्रथम कारखानें लेबोरियस मेकेनिक्स की एक शाखा के रूप में बीकानेर में स्थापित की जो उसी नाम से आज प्रसिद्ध है।

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2. रामकुमार जी रामकुमार जी का विवाह फतेहपुर के पंवार परिवार में रतनीदेवी के साथ हुआ। आप प्रारम्भ में लकड़ी का काम करते थे। आप ने अनेक नगरों में जाकर काम किया। इसके बाद डोजिल इंजिन की मरम्मत का काम करने लगे तथा श्री माधोपुर में एक फ्लोवर मिल को कई वर्षों तक संभाला। जब श्री तोलाराम जी मिस्त्री ने जयपुर में अजमेरी गेट के पास प्रथम कारखाना स्थापित किया तब सन् 1957 ई. में रामकुमार जी को अपने पास बुला लिया। उन्होंने कारखाने का काम जिम्मेदारी के साथ संभाला तथा दिन-रात कठोर परिश्रम करके अपनी योग्यता व कार्य क्षमता का परिचय दिया। फलतः वे ख्याति प्राप्त मिस्त्री हो गए। इसके साथ ही साथ उनके अर्थोपार्जन में भी काफी इजाफा हुआ। वे दूरदर्शी थे जिसका सुपरिणाम उन्हें मिला। उन्होंने 1964 ई. में अपना अलग कारखाना स्थापित कर लिया। उनका पाहकों से पुराना सम्पर्क था ही। अतः उनका कारखाना भली प्रकार से चलने लगा। जनता कालोनी में आपने अपना मकान भी बनवा लिया। जयपुर में तोलाराम जी के बाद रामकुमार ने अपने व्यवहार एवं कार्यकुशलता के बल पर अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृद्ध बनाया। उन्होंने अनेक प्लाट खरीदे और अनेक वर्कशॉप स्थापित किए। आपका मई 1992 ई. में स्वर्गवास हो गया। आपके पांच पुत्र हैं- विश्वनाथ, जगदीश, राधाकिशन, पप्पू व दिनेश।

(i) विश्वनाथ : रामकुम जी के जेष्ठ पुत्र श्री विश्वनाथ जी लक्ष्मणगढ़ ब्याहे हैं। वे अपने पिता के चरणचिह्नों पर चलते हुए परिवार का कार्यभार संभाले हुए हैं और वर्कशॉप का भी भली प्रकार से संचालन कर रहे हैं। आप ईश्वर के परम भक्त हैं और यथावसर धार्मिक अनुष्ठानों व सतसंगों में भाग लेते रहते हैं। आप प्रपंचों से दूर रहते हुए अपनी सीमा में कार्यरत रहते हैं। बिसाऊ की प्रॉपर्टी को भी आप ही संभालते हैं। आपकी फर्म का नाम हैं:

विष्णु इंजीनियरिंग वकर्स, घाट गेट, जयपुर (ii) जगदीश प्रसाद : आपका विवाह चूरु के राजोतियां परिवार में श्री दुलीचन्द जी की पुत्री के साथ हुआ। आप ने अपने पिताजी के सानिध्य में मेकेनिकल काम सीखा तथा कुछ वर्षों में ही दक्षता हासिल करली। 1971 ई. में आपने 'सुभाष इंजीनियरिंग वर्क्स फर्म स्थापित करके अलग से व्यवसाय प्रारभ्म कर दिया। सन् 1980 ई.में आपने 'हाइड्रोलिक्स इंडिया' संस्थान को प्रारभ्म करके व्यवसाय को आगे बढ़ाया। वर्तमान में आपका व्यवसाय अच्छा चल रहा है तथा आपने धामू परिवार में अपना विशिष्ठ स्थान बनाया है।

आप जांगिड़ वैदिक विद्यालय, फतेहपुर के आजीवन सदस्य हैं तथा 'जांगिड़ इण्डस्ट्रीज एसोसियसन जयपुर के संस्थापक सचिव हैं। आप एक जागरुक सामाजिक कार्यकर्ता है। समाज को आपसे अनेक अपेक्षाएं हैं। आपके एक पुत्र 'राजेश' है। है। आपके संस्थानों के नाम पते निम्न प्रकार से हैं:

1. सुभाष इंजीनियरिंग 2. हाइड्रोलिक्स इंडिया वर्क्स, जयपुर डी-125 (सी) रोड़ न9 डी. विश्वकर्मा औधोगिक क्षेत्र, जयपुर (iii) राधाकिशन आपक पका विवाह हरियाणा प्रांत के मटौली गांव में हुआ। परिवार एक प्रसिद्ध परिवार है। राधाकिशन ने अपने पिताजी मटीली गांव का उक्त जांगिड़ परि से मकैनिकल वर्कशॉप काम सीखा और कारखाने को भी संभाला। वर्तमान में अपना स्वतंत्र चला रहे हैं।

विवार मंडेला (iv) दिनेश : इनका विवाह पुत्री के साथ हुआ। आप एक दक्ष कर रहे हैं। के प्रसिद्ध व्यवसायी श्री दूगरमल जी की दक्ष कारीगर हैं और अपना स्वतंत्र वर्कशॉप का संचालन (v) पूनम (पप्पू) इनका विवाह मुकन्द गढ़ के श्री फूसाराम जी की पुत्री के साथ हुआ। आपने भी अपना प्रकार से संचालन कर रहे हैं। स्वतंत्र वर्कर शॉप स्थापित कर रखा है तथा उसका भलीरंग लाल 3. बजरंग नन्द लाल जी के तृतीय पुत्र श्री बजरंग जरंग लाल का बचपन बड़े आमोद-प्रमोद व मस्ती के साथ बीता। उन्होंने अपने शरीर को हष्ट पुष्ठ बनाने पर विशेष ध्यान दिया।

वे नित्य कसरत करते व दो से पांच सेर तक दूध पीते | उनके हाथ हाथ का पंजाब बहुत मजबूत था | वे एक हाथ से मुक्का मार कर जटदार नारियल के सैकड़ों टुकड़े कर डालते थे।

वे अनेक स्थानों पर गए किन्तु न्तु उनका मन नहीं लगा। आखिर जयपुर में आकर वे स्थायी रूप से रहने लगे। वे फर्नीचर चिर बनाने के दक्ष कारीगर थे। वे अनेक करीगरों का काम व अच्छा काम अकेले कर लिया करते थे। कम समय में अधिक व करना उनकी विशेषता थी। जयपुर में उनका कोई मुकाबला नहीं था। था। अपने कठोर परिश्रम के बल पर ही उन्होंने जयपुर में अपना निजी शानदार मकान बनवाया और अर्थार्जन भी किया। उनको प्रथम विवाह रामगढ़ के मगढ़ के मीसण परिवार में दानाराम जी की पुत्री के साथ हुआ किन्तु उनका गृहस्थ जीवन बीवन सुख शांति से नहीं बीत पाया। पारिवारिक कलह के मना करना पड़ा। प्रथम पत्नी से उनके कोई संतान भी नहीं कारण अनेक संकटों का सामना हुई। अतः उसका परित्याग करके दूसरी पत्नी सरदार शहर से लाये। उससे उनके तीन पुत्र हुए मुकेश, दिनेश व रुपे रुपेश। तीनों भाई अपना स्वतंत्र काम करते हैं। अब उन्होंने अपना मकान ढहर का बाला गालाजी क्षेत्र में खरीद लिया है और वहीं रहते हैं। बजरंग लाL जी का स्वर्गवास सन् 1994 ईमें हो गया।

धामू वंश की समाज को देन लगभग विराणिया से बिसाऊ आकर आबाद होने के पश्चात् धामू वंश के लग रनगर के साथ साथ देश के विभिन्न क्षेत्रों में अपने कौशल के साथ कार्यरत रहे हैं और उन्होंने अपने वंश और जन्म भूमि बिसाऊ के नाम को गौरवान्वित किया है। वर्तमान में भी देश के बड़े बड़े नगरों के साथ साथ खाड़ी देशों तक में इस वंश के शताधिक लोग अपनी प्रतिभा के बल पर कार्यरत रहते हुए समाज और देश की उन्नति में सहभागी बने हुए हैं। यह नगर बिसाऊ के लिए एक गौरव की बात कहीं जा सकती है। सोने-चांदी के आभूषणों पर चिताई, काठ के उत्पादों पर कुराई कोरणी, कारखानों के कार्यों में कुशलता, अभियांत्रिकी प्रतिभा, दस्तकारी में प्रवीणता आदि विशेष उल्लेखनीय उपलब्धियां इस वंश के कारीगरों ने प्राप्त कर नगर के लिए एक इतिहास बनाया है। इनकी कौशल कीर्ति से बिसाऊ का नाम सदा सदा तक जुड़ा रहेगा और दूर तक गौरव के साथ लिया जाता रहेगा, यही धामू वंश की समाज को विशिष्ट देन है।

अपनी परम्परित प्रतिष्ठा के अतिरिक्त इस वंश के लोगों ने राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक, साहित्यिक आदि अनेक धाराओं में गतिमान रहते हुए देश और समाज की सेवा की है तथा अद्यावधिसतत् भाव से जुड़े हुए हैं और विशिष्ट उल्लेखनीय उपलब्धियां अर्जित कर रहे हैं। यह वंश के लिए भी एक गौरव की बात है। उज्ज्वल एवं उत्कृष्ठ भविष्य के लिए सभी आशावान है|